Saturday, March 13, 2010

अपनी अस्मिता को बरकार रखना चाहता है वो मगर कैसे...


प्रकृतिदत्त उपहार शजर
प्रकृति ने जिसे कभी कुदरत का तोहफा समझकर लोगों को पहली नजर मे चमत्कृत कर देने वाले बेमिसाल पत्थर- शजर को अपनी किस्मत मान लिया था। वो ही समय की मार से ऐसा टूटा कि आज अपनी जमीन को ही खोने की तरफ अग्रसर है। तमाम बेशकीमती नगीनों और बुन्देलखण्ड की शान के अनुरूप इसकी ऐतिहासिक किवदन्तियों मे शामिल बुन्देलखण्डी कहानी की रफ्तार मे अध्याय बनकर दर्ज होने वालों में सबसे अनोखा प्रकृतिदत्त उपहार शजर ही है। वैज्ञानिक भाषा मे शजर को डेन्ड्राइट एगेट कहा जाता है। प्रशासन की उपेक्षा तथा नगीना व्यापार में इसकी अनदेखी के चलते अब ये उपेक्षा का शिकार है। भारत वर्ष में सिर्फ बुन्देलखण्ड के बांदा जनपद में बहने वाली केन नदी में ही यह पाया जाता है।

बांदा गजेटियर के अनुसार लगभग 300 वर्ष पूर्व मुगलकाल में शजर उद्योग को जबरजस्त सम्मान प्राप्त हुआ करता था। बुजुर्ग शजर व्यवसायी हामिद हुसैन जो कि अब इसे पार्ट टाइम तराशने का काम करते हैं, बताते हैं कि- नवाब, राजाओं के आकर्षण का केन्द्र ही शजर और उसकी खूबियां थी किन्तु नवाबी खत्म हो जाने के कारण शजर की कद्र धूमिल होती चली गयी। शजर की उत्पत्ति के विषय में अनेक तरह के मन्तव्य सामने आते हैं, मगर वैज्ञानिक दृष्टिकोण में दो प्रमुख कारण स्पष्ट हैं। जिनमें प्रथम बात यह है कि धरती के अन्दर धधकते हुए ज्वालामुखी का लावा सिलिका रूप में जब ऊपर आता है, तो पहुंचते पहुंचते ठण्डा होने लगता है। तत्पष्चात् जब वह द्रव्य रूप में एकत्र होता है, उसी संयोग वष वनस्पतियों के बीच उसके अन्दर अंकुरित होकर प्राकृतिक रूप से पत्थर की आकृति मंे एकाकार हो जाते हैं फिर क्रमषः परत दर परत जमकर चित्र के रूप मे उभर आते हैं। अन्ततः ठोस परिवर्तित रूप की शजर की शक्ल एख्तियार कर लेता है।

बांदा की केन में पूरे भू-भाग पर पहाड़ हैं, इन्ही पहाड़ों के बीच अन्तर्मुखी ज्वालामुखी विद्यमान हैं, किन्तु नदी के शीतल जल के कारण वे ठण्डे रहते हैं। शजर एगेट की परतों के बीच मैंगनीज व लौह खनिज का आकृति विषेष जमा हुआ द्रव्य पदार्थ ही है। बांदा के कुशल, सिद्धहस्त, शिल्पकार-कारीगर जो कि पिछले चालीस वर्षों से इसे व्यवसाय के रूप में अपनायें हैं, वे बताते हैं कि शजर की कोई भी पत्थर किसी दूसरे पत्थर के समानुपाती नहीं होता है। अर्थात प्रत्येक शजर दूसरे से भिन्न ही होगा। इसकी उत्पत्ति का दूसरा कारण यह है कि धरती के नीचे से लावा द्वारा ऊपर फेंका गया पदार्थ, जो प्राकृतिक रूप से रासायनिक क्रिया द्वारा ठोस पदार्थ मे जमने लगता है, उसमें अन्य तमाम धातुओं के साथ चांदी की बहुतायत मात्रा होती है। उस अवस्था में चांदी कैमरे के निगेटिव की तरह कार्य करती है। इसे वैज्ञानिक भाषा में कार्बनइफेक्ट कहते हैं। सूर्य की किरणों के माध्यम से पत्थरों की सतह के आसपास वनस्पतियों, पौधों, झाड़ियों, आदि का चित्र प्रायः इसके ऊपरी भाग मे फोटो की तरह अंकित हो जाता है इस प्रक्रिया के बीच यदि कोई पशु पक्षी अथवा मनुष्य स्वयं में गुजर जाये तो उसकी आकृति भी पत्थर के ऊपर उभर आती है।

शजर एक फारसी शब्द है। जिसका अर्थ है कि- शाख, टहनी या छोटा सा पौधा। इसे आम बोलचाल की भाषा में हकीक ए- शजरी भी कहते हैं। बांदा शजर व्यवसायी डा0 सतीष चन्द्र भट्ट की माने तो- कार्तिक पूर्णिमा की रात मे शजर पत्थर प्राकृतिक रूप से जल की सतह पर आ जाते हैं। प्रायः जब उगते हुए सूरज की पहली किरण शजर के ऊपर पड़ती है तो उसके सामने आने वाली प्रत्येक वस्तु इसके ऊपरी भाग में चित्र स्वरूप प्रकाषित हो जाती है। सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान शजर पहली मर्तबा अंग्रेजी हुकूमत की नजर में आया था। जब महारानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक के समय इसे काफी तरजी दी गयी थी। सन् 1911 मे विक्टोरिया कोरोसन प्रदर्षनी में महारानी इस अद्भुत पत्थर की बनावट पर इतनी मोहित हो गयी थी कि उसे अपने साथ ब्रिटिष संग्रालय की शोभा बढ़ाने वास्ते लेकर गयी थी, जो आज भी ब्रिटिश संग्रालय में शोभायमान है। नगर के ही एक अन्य व्यवसायी जिन्हे शजर की नक्काषी करने, ताजमहल, कालींजर का किला शजर से ही बनाने के लिए राज्य स्तरीय पुरूस्कार प्राप्त हो चुका है। द्वारिका प्रसाद सोनी (सचिन ज्वैलर्स) के मुताबिक ढाई दशक पूर्व ईरान, सउदी अरब, दोहा- कतर, अफगानिस्तान की सरहद पार भी शजर के सौदागर बांदा आकर मुंह मांगी कीमत मे इसे ले जाते थे। ज्योतिषियों के अनुसार जिन राशियों में हीरा, ओपल, हकीक, पुखराज पहनने की सलाह दी जाती है उनके लिए भी शजर पहनना लाभदायक होता है। किन्तु आज वक्त की धुन्ध एवं सामन्त शाही व्यवस्था, एकाधिकार का बाजारीकरण शजर उद्योग को बांदा नगर से लगभग खत्म करने के अन्तिम सोपान तक पहुंच चुका है। मषीनीकरण की समृद्वि में जो कच्चा माल पहले एक माह में तैयार होता था आज वही पांच दिनों मे तैयार हो जाता है।

तैयार माल की खपत न होने से ही व्यवसायी, कारीगर इससे विमुख होते जा रहे है। स्वयं सेवी संगठन प्रवास ने अपने सर्वेक्षण में संकलित आंकड़ों से यह पाया है कि एक अच्छा शजर जो पहले मुंह मांगी कीमत में बिकता था अब वही मात्र 25 रूपये में मिल जाता है जबकि साधारण पत्थर की कीमत 10 से 15 रूपये है। कारीगरों को एक दिन की दिहाड़ी मजदूरी 100 से 150 रूपये ही मिलती हैं, वहीं कारखाना मालिकों को 2500 से 3000 के बीच ही इस उद्योग से आमदनी है। यदि वे पूरी तरह शजर पर ही निर्भर हों तो घर खर्च चलाना भी दूभर होगा। आज आवश्यकता है कि सरकार इसे संरक्षण प्रदान कर बुन्देलखण्ड के प्रमुख कुटीर उद्योग में शामिल करें जिससे टूटते शजर की पहचान को बरकरार रखा जा सके।

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