Saturday, March 13, 2010

अपनी अस्मिता को बरकार रखना चाहता है वो मगर कैसे...


प्रकृतिदत्त उपहार शजर
प्रकृति ने जिसे कभी कुदरत का तोहफा समझकर लोगों को पहली नजर मे चमत्कृत कर देने वाले बेमिसाल पत्थर- शजर को अपनी किस्मत मान लिया था। वो ही समय की मार से ऐसा टूटा कि आज अपनी जमीन को ही खोने की तरफ अग्रसर है। तमाम बेशकीमती नगीनों और बुन्देलखण्ड की शान के अनुरूप इसकी ऐतिहासिक किवदन्तियों मे शामिल बुन्देलखण्डी कहानी की रफ्तार मे अध्याय बनकर दर्ज होने वालों में सबसे अनोखा प्रकृतिदत्त उपहार शजर ही है। वैज्ञानिक भाषा मे शजर को डेन्ड्राइट एगेट कहा जाता है। प्रशासन की उपेक्षा तथा नगीना व्यापार में इसकी अनदेखी के चलते अब ये उपेक्षा का शिकार है। भारत वर्ष में सिर्फ बुन्देलखण्ड के बांदा जनपद में बहने वाली केन नदी में ही यह पाया जाता है।

बांदा गजेटियर के अनुसार लगभग 300 वर्ष पूर्व मुगलकाल में शजर उद्योग को जबरजस्त सम्मान प्राप्त हुआ करता था। बुजुर्ग शजर व्यवसायी हामिद हुसैन जो कि अब इसे पार्ट टाइम तराशने का काम करते हैं, बताते हैं कि- नवाब, राजाओं के आकर्षण का केन्द्र ही शजर और उसकी खूबियां थी किन्तु नवाबी खत्म हो जाने के कारण शजर की कद्र धूमिल होती चली गयी। शजर की उत्पत्ति के विषय में अनेक तरह के मन्तव्य सामने आते हैं, मगर वैज्ञानिक दृष्टिकोण में दो प्रमुख कारण स्पष्ट हैं। जिनमें प्रथम बात यह है कि धरती के अन्दर धधकते हुए ज्वालामुखी का लावा सिलिका रूप में जब ऊपर आता है, तो पहुंचते पहुंचते ठण्डा होने लगता है। तत्पष्चात् जब वह द्रव्य रूप में एकत्र होता है, उसी संयोग वष वनस्पतियों के बीच उसके अन्दर अंकुरित होकर प्राकृतिक रूप से पत्थर की आकृति मंे एकाकार हो जाते हैं फिर क्रमषः परत दर परत जमकर चित्र के रूप मे उभर आते हैं। अन्ततः ठोस परिवर्तित रूप की शजर की शक्ल एख्तियार कर लेता है।

बांदा की केन में पूरे भू-भाग पर पहाड़ हैं, इन्ही पहाड़ों के बीच अन्तर्मुखी ज्वालामुखी विद्यमान हैं, किन्तु नदी के शीतल जल के कारण वे ठण्डे रहते हैं। शजर एगेट की परतों के बीच मैंगनीज व लौह खनिज का आकृति विषेष जमा हुआ द्रव्य पदार्थ ही है। बांदा के कुशल, सिद्धहस्त, शिल्पकार-कारीगर जो कि पिछले चालीस वर्षों से इसे व्यवसाय के रूप में अपनायें हैं, वे बताते हैं कि शजर की कोई भी पत्थर किसी दूसरे पत्थर के समानुपाती नहीं होता है। अर्थात प्रत्येक शजर दूसरे से भिन्न ही होगा। इसकी उत्पत्ति का दूसरा कारण यह है कि धरती के नीचे से लावा द्वारा ऊपर फेंका गया पदार्थ, जो प्राकृतिक रूप से रासायनिक क्रिया द्वारा ठोस पदार्थ मे जमने लगता है, उसमें अन्य तमाम धातुओं के साथ चांदी की बहुतायत मात्रा होती है। उस अवस्था में चांदी कैमरे के निगेटिव की तरह कार्य करती है। इसे वैज्ञानिक भाषा में कार्बनइफेक्ट कहते हैं। सूर्य की किरणों के माध्यम से पत्थरों की सतह के आसपास वनस्पतियों, पौधों, झाड़ियों, आदि का चित्र प्रायः इसके ऊपरी भाग मे फोटो की तरह अंकित हो जाता है इस प्रक्रिया के बीच यदि कोई पशु पक्षी अथवा मनुष्य स्वयं में गुजर जाये तो उसकी आकृति भी पत्थर के ऊपर उभर आती है।

शजर एक फारसी शब्द है। जिसका अर्थ है कि- शाख, टहनी या छोटा सा पौधा। इसे आम बोलचाल की भाषा में हकीक ए- शजरी भी कहते हैं। बांदा शजर व्यवसायी डा0 सतीष चन्द्र भट्ट की माने तो- कार्तिक पूर्णिमा की रात मे शजर पत्थर प्राकृतिक रूप से जल की सतह पर आ जाते हैं। प्रायः जब उगते हुए सूरज की पहली किरण शजर के ऊपर पड़ती है तो उसके सामने आने वाली प्रत्येक वस्तु इसके ऊपरी भाग में चित्र स्वरूप प्रकाषित हो जाती है। सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान शजर पहली मर्तबा अंग्रेजी हुकूमत की नजर में आया था। जब महारानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक के समय इसे काफी तरजी दी गयी थी। सन् 1911 मे विक्टोरिया कोरोसन प्रदर्षनी में महारानी इस अद्भुत पत्थर की बनावट पर इतनी मोहित हो गयी थी कि उसे अपने साथ ब्रिटिष संग्रालय की शोभा बढ़ाने वास्ते लेकर गयी थी, जो आज भी ब्रिटिश संग्रालय में शोभायमान है। नगर के ही एक अन्य व्यवसायी जिन्हे शजर की नक्काषी करने, ताजमहल, कालींजर का किला शजर से ही बनाने के लिए राज्य स्तरीय पुरूस्कार प्राप्त हो चुका है। द्वारिका प्रसाद सोनी (सचिन ज्वैलर्स) के मुताबिक ढाई दशक पूर्व ईरान, सउदी अरब, दोहा- कतर, अफगानिस्तान की सरहद पार भी शजर के सौदागर बांदा आकर मुंह मांगी कीमत मे इसे ले जाते थे। ज्योतिषियों के अनुसार जिन राशियों में हीरा, ओपल, हकीक, पुखराज पहनने की सलाह दी जाती है उनके लिए भी शजर पहनना लाभदायक होता है। किन्तु आज वक्त की धुन्ध एवं सामन्त शाही व्यवस्था, एकाधिकार का बाजारीकरण शजर उद्योग को बांदा नगर से लगभग खत्म करने के अन्तिम सोपान तक पहुंच चुका है। मषीनीकरण की समृद्वि में जो कच्चा माल पहले एक माह में तैयार होता था आज वही पांच दिनों मे तैयार हो जाता है।

तैयार माल की खपत न होने से ही व्यवसायी, कारीगर इससे विमुख होते जा रहे है। स्वयं सेवी संगठन प्रवास ने अपने सर्वेक्षण में संकलित आंकड़ों से यह पाया है कि एक अच्छा शजर जो पहले मुंह मांगी कीमत में बिकता था अब वही मात्र 25 रूपये में मिल जाता है जबकि साधारण पत्थर की कीमत 10 से 15 रूपये है। कारीगरों को एक दिन की दिहाड़ी मजदूरी 100 से 150 रूपये ही मिलती हैं, वहीं कारखाना मालिकों को 2500 से 3000 के बीच ही इस उद्योग से आमदनी है। यदि वे पूरी तरह शजर पर ही निर्भर हों तो घर खर्च चलाना भी दूभर होगा। आज आवश्यकता है कि सरकार इसे संरक्षण प्रदान कर बुन्देलखण्ड के प्रमुख कुटीर उद्योग में शामिल करें जिससे टूटते शजर की पहचान को बरकरार रखा जा सके।

Friday, March 12, 2010

प्रवास: Women Reservation in India

प्रवास: Women Reservation in India

Women Reservation in India

महिला आरक्षण विधेयक ने अपने 14 साल के लम्बे सफर में संसद में तमाम
बाधाओं और नाटकीय घटनाक्रमों की वजह से लटकने के बाद पहला विधायी चरण तो
पार कर लिया लेकिन लोकसभा और देश की आधी राज्य विधानसभाओं से मंजूरी
मिलने और प्रक्रियागत तमाम जटिलताओं के कारण विशेषज्ञों का मानना है कि
इसे अभी अमल में आने में काफी समय लग जायेगा।

लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप ने कहा कि अभी तो यह विधेयक
राज्यसभा में पास हुआ है। इसे अभी लोकसभा और देश की आधी राज्य विधानसभाओं
की मंजूरी लेनी होगी। इसके बाद इसे राष्ट्रपति के पास भेजा जायेगा।

उन्होंने कहा राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद भी इसे तब तक लागू नहीं किया
जा सकता जब तक इसकी प्रक्रियाओं को तय नहीं किया जाता। उन्होंने कहा अभी
इस विधेयक में 15 साल के लिए महिलाओं को संसद और राज्य विधानसभाओं में 33
प्रतिशत आरक्षण और हर पांच साल के बाद सीटों में क्रमवार बदलाव का उल्लेख
है।

कश्यप ने कहा इसे लागू करने की प्रक्रिया तय करनी होगी। यह निर्धारित
करना होगा कि पहले पांच वर्षों के लिए किन-किन सीटों को एक तिहाई आरक्षण
के तहत आरक्षित किया जायेगा। लोकसभा के पूर्व महासचिव ने कहा कि इसे लागू
करने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है।

वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा कि महिला आरक्षण विधेयक वास्तव में
संविधान संशोधन है जिसका प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत किया
गया है लेकिन इस बात को ध्यान में रखने पर जोर दिया गया है कि इससे संसद
के अधिकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़े।

उन्होंने कहा कि संविधान संशोधन की प्रक्रिया काफी जटिल है और महिला
आरक्षण विधेयक के संबंध में जो प्रक्रिया अपनायी गई है वह संसद के विशेष
बहुमत की पद्धति पर आधारित है। उन्होंने कहा राज्यसभा और लोकसभा से पास
होने के बाद इसे देश की आधी राज्य विधानसभाओं से मंजूरी प्राप्त करना
होगा। इसलिए अभी इस विधेयक को कई बाधाओं को पार करना है।

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Wednesday, March 10, 2010

Love with Sazar Bundekhand ( Banda ) Prawas

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विकेंद्रीकृत पंचायते और उनकी मजबूती


पंचायतों का सशक्‍तीकरण
पंचायती राज संस्थायें भारत में लोकतंत्र की मेरूदंड है। निर्वाचित स्थानीय निकायों के लिए विकेन्द्रीकृत, सहभागीय और समग्र नियोजन प्रक्रिया को बढावा देने और उन्हें सार्थक रूप प्रदान करने के लिए पंचायती राज मंत्रालय ने अनेक कदम उठाए हैं।

पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष (बीआरजीएफ)

इस योजना के तहत अनुदान प्राप्त करने की अनिवार्य शर्त विकेन्द्रीकृत, सहभागीय और समग्र नियोजन प्रक्रिया को बढावा देना है। यह विकास के अन्तर को पाटता है और पंचायती राज संस्थाओं (पीआरआई) और उसके पदाधिकारियों की क्षमताओं का विकास करता है। हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करने में बीआरजीएफ अत्यधिक उपयोगी साबित हुआ है और पीआरआई'ज तथा राज्यों ने योजना तैयार करने एवं उन पर अमल करने का अच्छा अनुभव प्राप्त कर लिया है। बीआरजीएफ के वर्ष 2009-10 के कुल 4670 करोड़ रुपए के योजना परिव्यय में से 31 दिसबर, 2009 तक 3240 करोड़ रुपए जारी किये जा चुके हैं।

ई-गवर्नेंस परियोजना

एनईजीपी के अन्तर्गत ईपीआरआई की पहचान मिशन पध्दति की परियोजनाओं के ही एक अंग के रूप में की गई है। इसके तहत विकेन्द्रीकृत डाटाबेस एवं नियोजन, पीआरआई बजट निर्माण एवं लेखाकर्म, केन्द्रीय और राज्य क्षेत्र की योजनाओं का क्रियान्वयन एवं निगरानी, नागरिक-केन्द्रित विशिष्ट सेवायें, पंचायतों और व्यक्तियों को अनन्य कोड (पहचान संख्या), निर्वाचित प्रतिधिनियों और सरकारी पदाधिकारियों को ऑन लाइन स्वयं पठन माध्यम जैसे आईटी से जुड़ी सेवाओं की सम्पूर्ण रेंज प्रदान करने का प्रस्ताव है। ईपीआरआई में आधुनिकता और कार्य कुशलता के प्रतीक के रूप में पीआरआई में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने और व्यापक आईसीटी (सूचना संचार प्रविधि) संस्कृति को प्रेरित करने की क्षमता है।

ईपीआरआई में सभी 2.36 लाख पंचायतों को तीन वर्ष के लिए 4500 करोड़ रुपए के अनन्तिम लागत से कम्प्यूटरिंग सुविधाएं मय कनेक्टिविटी (सम्पर्क सुविधाओं सहित) के प्रदान करने की योजना है। चूंकि पंचायतें, केन्द्र राज्यों के कार्यक्रमों की योजना तैयार करने तथा उनके क्रियान्वयन की बुनियादी इकाइयां होती हैं, ईपीआरआई, एक प्रकार से, एमएमपी की छत्रछाया के रूप में काम करेगा। अत: सरकार, ईएनईजीपी के अन्तर्गत ईपीआरआई को उच्च प्राथमिकता देगी। देश के प्राय: सभी राज्यों (27 राज्यों) की सूचना और सेवा आवश्यकताओं का आकलन, व्यापार प्रक्रिया अभियांत्रिकी और विस्तृत बजट रिपोर्ट पहले ही तैयार की जा चुकी हैं और परियोजना पर अब काम शुरू होने को ही है।

महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण

राष्ट्रपति ने 4 जून, 2009 को संसद में अपने अभिभाषण में कहा था कि वर्ग, जाति और लिंग के आधार पर अनेक प्रकार की वर्जनाओं से पीड़ित महिलाओं को पंचायतों में 50 प्रतिशत आरक्षण के फैसले से अधिक महिलाओं को सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश का अवसर प्राप्त होगा। तद्नुसार मंत्रिमंडल ने 27 अगस्त, 2009 को संविधान की धारा 243 घ को संशोधित करने के प्रस्ताव का अनुमोदन कर दिया ताकि पंचायत के तीनों स्तर की सीटों और अध्यक्षों के 50 प्रतिशत पद महिलाओं के लिए आरक्षित किये जा सकें। पंचायती राज मंत्री ने 26 नवम्बर, 2009 को लोकसभा में संविधान (एक सौ दसवां) सशोधन विधेयक, 2009 पेश किया।


वर्तमान में, लगभग 28.18 लाख निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों में से 36.87 प्रतिशत महिलायें हैं। प्रस्तावित संविधान संशोधन के बाद निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की संख्या 14 लाख से भी अधिक हो जाने की आशा है।

पंचायती राज संस्थाओं को कार्यों, वित्त और पदाधिकारियों का हस्तान्तरण

पंचायतें जमीनी स्तर की लोकतांत्रिक संस्थायें हैं और कार्यों, वित्त तथा पदाधिकारियों के प्रभावी हस्तांतरण से उन्हें और अधिक सशक्त बनाए जाने की आवश्यकता है। इससे पंचायतों द्वारा समग्र योजना बनाई जा सकेगी और संसाधनों को एक साथ जुटाकर तमाम योजनाओं को एक ही बिन्दु से क्रियान्वित किया जा सकेगा।

ग्राम सभा का वर्ष

पंचायती राज के 50 वर्ष पूरे होने पर 2 अक्तूबर, 2009 को समारोह का आयोजन किया गया। स्वशासन में ग्राम सभाओं और ग्राम पंचायतों में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के महत्व को देखते हुए 2 अक्तूबर, 2009 से 2 अक्तूबर, 2010 तक की अवधि को ग्राम सभा वर्ष के रूप में मनाया जाएगा। ग्राम सभाओं की कार्य प्रणाली में प्रभाविकता सुनिश्चित करने के सभी संभव प्रयासों के अतिरिक्त, निम्नलिखित कदम उठाए जा रहे हैं--पंचायतों, विशेषत: ग्राम सभाओं के सशक्तीकरण के लिए आवश्यक नीतिगत, वैधानिक और कार्यक्रम परिवर्तन, पंचायतों में अधिक कार्य कुशलता, पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने हेतु सुव्यवस्थित प्रणालियों और प्रक्रियाओं को और ग्राम सभाओं तथा पंचायतों की विशिष्ट गतिविधियों को आकार देना और ग्राम सभाओं तथा पंचायतों की विशिष्ट गतिविधियों के बारे में जन-जागृति फैलाना।

न्याय पंचायत विधेयक, 2010

वर्तमान न्याय प्रणाली, व्ययसाध्य, लम्बी चलने वाली प्रक्रियाओं से लदी हुई, तकनीकी और मुश्किल से समझ में आने वाली है, जिससे निर्धन लोग अपनी शिकायतों के निवारण के लिए कानूनी प्रक्रिया का सहारा नहीं ले पाते। इस प्रकार की दिक्कतों को दूर करने के लिए मंत्रालय ने न्याय पंचायत विधेयक लाने का प्रस्ताव किया है। प्रस्तावित न्याय पंचायतें न्याय की अधिक जनोन्मुखी और सहभागीय प्रणाली सुनिश्चित करेंगी, जिनमें मध्यस्थता, मेल-मिलाप और समझौते की अधिक गुंजाइश होगी। भौगोलिक और मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों के अधिक नजदीक होने के कारण न्याय पंचायतें एक आदर्श मंच संस्थायें साबित होंगी, जिससे दोनों पक्षों और गवाहों के समय की बचत होनी, परेशानियां कम होंगी और खर्च भी कम होगा। इससे न्यायपालिका पर काम का बोझ भी कम होगा।

पंचायत महिलाशक्ति अभियान

यह निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों (ईडब्ल्यूआर) के आत्मविश्वास और क्षमता को बढाने की योजना है ताकि वे उन संस्थागत, समाज संबंधी और राजनीतिक दबावों से ऊपर उठकर काम कर सकें, जो उन्हें ग्रामीण स्थानीय स्वशासन में सक्रियता से भाग लेने में रोकते हैं। बाइस राज्यों में कोर (मुख्य) समितियां गठित की जा चुकी हैं और राज्य स्तरीय सम्मेलन हो चुके हैं। योजना के तहत 9 राज्य समर्थन केन्द्रों की स्थापना की जा चुकी है। ये राज्य हैं-- आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, सिक्किम, केरल, पश्चिम बंगाल और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह। योजना के तहत 11 राज्यों में प्रशिक्षण के महत्त्व के बारे में जागरूकता लाने के कार्यक्रम हो चुके हैं। ये राज्य हैं-- आंध्र प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ, ग़ोवा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, मणिपुर, केरल, असम, सिक्किम और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह।

संभागीय स्तर के 47 सम्मेलन 11 राज्यों (छत्तीसगढ, ग़ोवा, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, सिक्किम, मणिपुर, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह) में आयोजित किए गए हैं। गोवा और सिक्किम में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों और निर्वाचित युवा प्रतिनिधियों (ईडब्ल्यूआर्स ईवाईआर्स) के राज्य स्तरीय संघ गठित किये जा चुके हैं।

ग्रामीण व्यापार केन्द्र (आरबीएच) योजना

भारत में तेजी से हो रहे आर्थिक विकास को ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से पहुंचाने के लिए 2007 में आरबीएच योजना शुरू की गई थी। आरबीएच, देश के ग्रामीण क्षेत्रों के लिए विकास का एक ऐसा सहभागीय प्रादर्श है जो फोर पी अर्थात पब्लिक प्राईवेट पंचायत पार्टनरशिप (सरकार, निजी क्षेत्र, पंचायत भागीदारी) के आधार पर निर्मित है। आरबीएच की इस पहल का उद्देश्य आजीविका के साधनों में वृध्दि के अलावा ग्रामीण गैर-कृषि आमदनी बढाक़र और ग्रामीण रोजगार को बढावा देकर ग्रामीण समृध्दि का संवर्धन करना है।

राज्य सरकारों के परामर्श से आरबीएच के अमल पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित करने के लिए 35 जिलों का चयन किया गया है। संभावित आरबीएच की पहचान और उनके विकास के लिए पंचायतों की मदद के वास्ते गेटवे एजेन्सी के रूप में काम करने हेतु प्रतिष्ठित संगठनों की सेवाओं को सूचीबध्द किया गया है। आरबीएच की स्थापना के लिए 49 परियोजनाओं को वित्तीय सहायता दी जा चुकी है। भविष्य में उनका स्तर और ऊंचा उठाने के लिए आरबीएच का मूल्यांकन भी किया जा रहा है।

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Monday, March 08, 2010

क्यों लाजमी है भूजल




भूजल
भूजल- -इसका आकलन कैसे किया जाता है । भूजल सिंचाई का एक महत्वपूर्ण स्रोत होता है और वह देश की 50% से अधिक सिंचाई की पूर्ति करता है। खाद्यान्न उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भरता की स्थिति तक पहुंचने में पिछले तीन दशकों में भूजल सिंचाई का योगदान उल्लेखनीय रहा है। आने वाले वर्षों में सिंचित कृषि के विस्तार तथा खाद्य उत्पादन के राष्ट्रीय लक्ष्यों की पूर्ति के लिए भूजल प्रयोग में कई गुना वृद्धि होने की संभावना है। हालांकि भूजल वार्षिक आधार पर पुनःपूर्ति योग्य स्रोत है फिर भी स्थान और समय की दृष्टि से इसकी उपलब्धता असमान है। इसलिए भूजल संसाधन के विकास की योजना तैयार करने के लिए भूजल संसाधन और सिंचाई क्षमता का एकदम सही आकलन करना एक पूर्वापेक्षा है। भूजल की प्राप्ति और संचलन पर जल भू-वैज्ञानिक, जल-वैज्ञानिक और जलवायुपरक जैसे बहुविध तत्वों का नियंत्रण रहता है। पुनःपूरण और निस्सारण का सही आकलन करना दुष्कर होता है क्योंकि उनके प्रत्यक्ष मापन के लिए फिलहाल कोई तकनीक उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए भूजल संसाधन के आकलन के लिए प्रयुक्त सभी विधियां परोक्ष हैं। क्योंकि भूजल एक गतिशील और पुनःपूर्तियोग्य संसाधन है इसलिए इसका आकलन प्रायः वार्षिक पुनःपूरण के घटक पर आधारित रहता है जिसे उपर्युक्त भूजल संरचनाओं के बल पर विकसित किया जा सकता है। भूजल संसाधनों के परिमाणन के लिए जलधारक चट्टान, जिसे जलभृत कहते हैं के निर्माण के व्यवहार और विशेषताओं की सही जानकारी जरूरी है। एक जलभृत के दो प्रमुख कार्य होते हैं (i) पानी का संक्रमण करना (नाली का कार्य) तथा (ii) संग्रह करना (भण्डारण का कार्य)। अबाधित जलभृतों के भीतर भूजल संसाधनों को स्थिर और गतिशील के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। स्थिर संसाधनों को जलभृत के पारगम्य भाग में जल स्तर उतार-चढ़ाव के क्षेत्र के नीचे उपलब्ध भूजल की मात्रा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। गतिशील संसाधनों को जलस्तर उतार-चढ़ाव के क्षेत्र में उपलब्ध भूजल की मात्रा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। पुनःपूर्तियोग्य भूजल संसाधन अतिवार्यतः एक गतिशील संसाधन है जिसकी प्रतिवर्ष अथवा नियतकालिक आधार पर वर्षा, सिंचाई प्रत्यावर्ती प्रवाह, नहर रिसाव तालाब रिसाव, अन्तःस्रावी रिसाव आदि से पुनःपूर्ति होती है। भूजल संसाधनों की गणना करने के लिए प्रयुक्त प्रविधियां आमतौर पर जल-वैज्ञानिक बजट तकनीकों पर आधारित होती है। भूजल अवस्था के लिए जल-वैज्ञानिक समीकरण जल सन्तुलन समीकरण का एक विशिष्ट रूप होता है जिसके लिए इन मदों के परिमाणन की जरूरत होती हैः भूजल जलाशय में अन्तर्वाह तथा उसमें से बहिर्वाह तथा जलाशय के भीतर मौजूद भण्डार में बदलाव। इनमें से कुछेक मदें सीधी मापी जा सकती हैं, कुछ का निर्धारण सतही जल की मापित मात्रा अथवा दरों के बीच के अन्तर के आधार पर किया जा सकता है तथा कुछ के आकलन के लिए परोक्ष विधियों की जरूरत रहती है। इन मदों का प्रतिपादन नीचे किया गया हैः I. भूजल जलाशय को उपलब्ध कराई जाने वाली मदें 1. भूजल तल में वर्षा अन्तःस्यन्दन 2. नदी, झीलों और कुंडों से प्राकृतिक--पुनर्भरण 3. विचाराधीन क्षेत्र में भूजल अन्तर्वाह 4. सिंचाई, जलाशयों तथा कृत्रिम पुनर्भरण के लिए विशेष रूप से तैयार की गई अन्य स्कीमों से पुनर्भरण II. भूजल जलाशय से निपटान की मदें 1. उथले भूजल तक के क्षेत्रों में केशिका, फ्रिन्ज से वाष्पीकरण तथा भूजल पोषितों और अन्य पौधों/वनस्पति द्वारा वाष्पोत्सर्जन 2. नदियों, झीलों और कुण्डों को रिसाव और वसन्तकालीन प्रवाह द्वारा प्राकृतिक निस्सारण 3. भूजल बहिर्वाह
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