Thursday, September 02, 2010

पर्यावरण सुरक्छा जन अभियान 24.10.2009 जनपद बांदा

Climate change event and save our nature for next child future / Stop 350PPM climate moement in Bundelkhand
region

Labels:

Tuesday, August 31, 2010

भूमि अधिग्रहण कानून - 1894 :  बनाम किसान

अधिग्रहीत की गई जमीन के मुआवजे को लेकर किसानों के संघर्ष का यह मामला पहली दफा नहीं है जैसा कि अलीगढ़, आगरा में हो रहा है। गंगा एक्सप्रेस के तहत जब पष्चिमी उत्तर प्रदेष में जमीनों का अधिग्रहण किया गया था तो यह क्षेत्र किसानों और प्रषासनिक संघर्षों का पर्याय बन गया। इसी तरह वर्ष 2004 में रिलायंस के दादरी प्रोजेक्ट के लिए जब किसानांे को 2500 एकड़ जमीन पर कम मुआवजा दिया गया, तो उन्होने पूर्व प्रधान मंत्री वी0पी0 सिंह के नेतृत्व में आन्दोलन किया जिसमें उन्हे इलाहाबाद हाईकोर्ट से जीत मिली। ममता बनर्जी ने भी कोलकाता के सिंगुर में टाटा के नैनो प्रोजेक्ट के खिलाफ सफल आन्दोलन चलाया। अभी हाल में ही बुन्देलखण्ड के बांदा जनपद में ग्राम पल्हरी व गुरेह के किसानों ने भी लगातार एक माह तक क्रमिक अनषन एवं अन्य अहिंसात्मक रूप में प्रदेष सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण को लेकर ‘जान देंगे पर जमीने नहीं देंगे’ के बैनर से आन्दोलन किया मगर सिर्फ सरकारी महकमों द्वारा मिली दिलासा के साथ उनको खामोष होना पड़ा। लेकिन आज भी जहां तहां वह चिंगारी बांकी है।
बरहाल वित्त मंत्री, प्रणव मुखर्जी ने अब घोषणा की है कि जमीन अधिग्रहण पर मंत्रियों का एक समूह विचार कर रहा है और इस बारे में शीघ्र ही एक विधेयक लाया जायेगा। असल में आज भी जिस भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के तहत जमीनों का अधिग्रहण हो रहा है दरअसल वह अंग्रेजी हुकूमत की देन है। इस कानून की नींव फोर्ट विलियम हंटर ने 1824 में बंगाल प्रान्त में डाली, जिसकी सहायता से अचल सम्पत्तियों का अधिग्रहण, सड़क, नहर और अन्य जन्य सुविधाओं के लिए किया गया। पर जब रेल लाइनों के बिछाने की बात आयी तो 1894 में सरकार का हाथ मजबूत करते हुए इसमंे व्यापक परिवर्तन किये गये। यह विडम्बना है कि आज भी इसी कानून के मुताबिक केन्द्र सरकार या केन्द्रीय एजेंसियां अथवा राज्य सरकारांे द्वारा अधिग्रकृत कम्पनियां सेज जैसे मामलों व किसान आन्दोलनों को कुचलते हुए उनकी जमीनांे पर अतिक्रमण कर महज मुआवजा देकर खाना पूर्ति करते हैं।
अमूमन यह अधिग्रहण अस्पताल, सड़क, फैक्ट्री, सेज (विषेष आर्थिक जोन) जैसे व्यापारिक उद्देष्य को पूरा करने के लिये भी इस कानून की बैषाखी थाम ली जाती है। 1978 में इसे तब और मजबूती मिली जबकि 44वें संविधान संषोधन के जरिये सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकार की श्रेणी से निकाल दिया गया। इस तरह सरकार कभी भी, कहीं भी किसी की भी जमीन, भवन का अधिग्रहण की हकदार हो गयी।
गौरतलब है कि फोर्ट विलियम हंटर व मैक्समूलर की अध्यक्षता में गठित विलियम हंटर कमीषन के जरिये ही अंग्रेजों ने भारत में 34,735 कानून बतौर दस्तावेज छोड़े जिसमंे प्रमुख रूप से इण्डियन पुलिस एक्ट, लैण्ड एक्जवीषन एक्ट, इण्डियन एजुकेषन एक्ट मुख्य हैं। लार्ड मैकाले ने अपनी षिक्षा व्यवस्था के तहत 7,34000 गुरूकुलों को नष्ट कर दिया और एक ऐसी षिक्षा व्यवस्था अपाहिज देष पर लाद दी जिसने पब्लिक काॅनवेंट स्कूलांे की बाढ़ पूरे देष के कस्बों और शहरों में लाद दी। जबकि इस षिक्षा व्यवस्था को किसी भी पष्चिमी मुल्क में यहां तक कि स्वयं ब्रिटिष सरकार ने अपने देष में लागू नहीं किया। एक भारत देष ही है जहां कि 52 करोड़ युवाओं की गुणवत्ता 100 में 33 नम्बर लाने पर अनुमान लगायी जाती है। आजादी के ऐसे माहौल में भी हम सात दषकों की परतंत्रता को झेल रहे हैं और वे कानून आज भी नहीं बदले जिसकी सह पर कभी लाला लाजपतराय और आज अलीगढ़-आगरा, बुन्देलखण्ड के किसान अपनी जमीनों को बचाने के लिए लगातार जन आन्दोलन कर रहे हैं। अगर कुछ बदलता है तो सर्वसम्मति से बढ़ती हुयी मंहगाई, संासदों-विधायकों के बढ़े हुए वेतनभत्ते और गरीब की बदहाली का एक मंजर।
15 अगस्त 2010 को एक प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्र अमर उजाला की सुर्खियां वे आंकड़े भी बने जिनके मुताबिक 2008 में देष में अरबपतियों की संख्या 27 थी जो 2009 में बढ़कर 54 हो गयी। 20 करोड़ से भी ज्यादा लोगों को प्रतिदिन इस देष में भर पेट भोजन नहीं मिलता है। एक लाख अस्सी हजार रूपये से अधिक सालाना आय वर्ग वालों परिवारों की संख्या 4.67 करोड़ है। वहीं छः करोड़ तीस लाख से अधिक परिवार गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। 1.26 लाख से अधिक लोग पांच करोड़ रूपये तक के निवेष की हैसियत रखते हैं।
जबकि एक हजार मंे से दो सौ पचास व्यक्तियों को प्रतिदिन दोनों वक्त का खाना नहीं मिलता है। समान जीवन प्रत्याषा में हमारा राष्ट्र विष्व के 58वंे नम्बर पर होता है और जहां चीन व बांग्लादेष इस मुल्क को बंधक बनाकर आगे निकल जाते हैं। सात करोड़ लोगों के पास एक से अधिक मकान हैं वहीं 11 करोड़ लोग शहरों की फुटपाथों पर अपनी रात गुजारते हैं। भारत में तीन प्रतिषत लोग भी सही रूप से आयकर अदा करते हैं। दूसरी तरफ यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार हर 15 सेकण्ड में 1 बच्चा जल जनित बीमारी से मर जाता है। प्रत्येक वर्ष आठ सौ टन सोना कारोबारी बाजार में हिस्सा बनता है वहीं छः सौ टन सोने के जेवर भारतीय महिलायें अपने घरों में अलमारियों के अन्दर रखती हैं। पन्द्रह करोड़ लोगों का पचास लाख रूपया सालाना मिनरल वाटर खरीदने पर खर्च होता है। विकासषील भारत की एक बांगी है कि 1.5 करोड़ लोगों की आबादी में सिर्फ एक स्वर्ण पदक ओलम्पिक में हासिल होता है और दूसरी तरफ राष्ट्रीय खेल हाॅकी महिला सेक्स स्कैण्डल का मूक गवाह बन जाता है। लार्ड मैकाले की षिक्षा व्यवस्था का इतना व्यापक असर हुआ कि ईसा के समर्थकों ने समाज को तीन वर्गों अपर क्लास, मीडिएम क्लास, लोवर क्लास (किसान, मजदूर, क्लर्क) मंे बांट दिया। आखिर क्यों गांव में पगडण्डियांे के किनारे चलने वाले प्राथमिक स्कूलों में मध्यान्ह भोजन बंटने के दौरान लम्बी लाइनों में गरीब बच्चों के साथ जन प्रतिनिधि, व्यापारी पूंजीपति और आई0एस0 के बच्चे खड़े नहीं दिखते। संसाधनों जल, जमीन, जंगल पर सामुदायिक अधिकार भी इन्ही अपर क्लास लोगों को हासिल है। यद्यपि भारत में लोकतंत्र है और व्यक्ति को अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है। लेकिन उसे हटाने या वेतन भत्तांे में बढ़ोत्तरी का अधिकार खुद प्रतिनिधि को है। क्या वास्तव में लोकतंत्रात्मक गणराज्य मंे जन प्रतिनिधि जन्मदाता ऐसे हालात में तयषुदा विकास का अंग बन सकता है जब बुन्देलखण्ड जैसे 50 प्रतिषत राज्यों के हिस्से में असंतोष के चलते नक्सलवाद, भुखमरी, आकाल के हालात साल दरसाल बनते जा रहे हैं। शायद यह एक और गृहयुद्ध की दस्तक ही है जिसकी अगुवाई स्वयं देष का किसान करेगा।
‘‘कातिल ने की  कुछ इस तरह कत्ल का साजिष, थी उसको नहीं खबर लहू बोलता भी है।’’
आशीष सागर
प्रवास, बुन्देलखण्ड
 

Labels:

Sunday, August 29, 2010

सरहदों पे आज कल

मेरे मुल्क में ये नफरतो का जेहाद क्यों है ,
आदमी अपनों के लिए नहीं अपने ही लिए बर्बाद क्यों है ?
एक अदना सा सुकून बस मिल जाये शायद इसलिए ही ,
उनका दिल और रूह का एक - एक जर्रा मशाद क्यों है ?
क्या वो खुद या फिर आदमियों के लाशों पर हुकूमते बनायेगे ,
मेरा देश कहने को इस तरह से आजाद क्यों है ?
अब तो घरो में प्यार का जलसा दिखाई नहीं देता सागर ,
ये नफरतो का बाज़ार सारे आम इतने बरस बाद भी क्यों है ? सरहदों  पे आज कल मचा जैसे खुदा नहीं खून का हल्ला , इस तरह से इंसानीयत बेहया - बतजात क्यों है ?

Labels: