Thursday, February 10, 2011

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Story - अकाल में मुफलिसी के शिकार परिवारों का समाधान बनी दादरें की आखत


अकाल में मुफलिसी के शिकार परिवारों का समाधान बनी दादरें की आखत

बुन्देलखण्ड में सूखा कोई नयी बात नही है, पशु सूखा काटने की कूवत, उसकी क्षमता होना पहली बार इस क्षेत्र के वासिन्दो में दिखी जिससे न केवल इस इलाके अधिकांश परिवारों ने पलायन कर महा नगरों में शरण ली, बल्कि स्वाभिमानी, पानीदार ग्रामीणो ने तो अपमान से बेहतर खुदकुशी का रास्ता तय कर लिया।
अकाल की मांद में सुरताल-बुन्देखण्ड जब सूखे के चरम पर पहुंचा तो गांव के वासिन्दे कर्ज, भूख और बैंको की कानूनी वसूली के अपमान से आजिज होकर खुदकुषी की राह पर चल पडे़ तब उस वक्त महोबा जिले के पहाडिया गांव में रहने वाली तीन सहेलियों ने अनूठे समाधान का जन्म देकर अकाल के मुंह में समा रहे लोगों की जिन्दगी बचा-लडने की ताकत दे दी।
जन चर्चा व अखबारों में छपी आत्म हत्याओं की खबरों से चर्चित पहाडियां (महोबा) गांव की गुडिया व रीना दो सगी बहनों ने अपने पिता की दिन व दिन कर्ज और खाली पडे खेतों की चिन्ता से बढ रहे तनाव को देखकर अपनी सहेली नीतू सक्सेना से आशंका जतायी की दद्दा को को कुछ हो गया तो अपने आप को कैसे जिन्दा पाहे, पिता रामकुमार सिंह ने इलाहाबाद बैंक शाखा पनवाडी से वर्ष 2000 में टैªक्टर खरीदने के लिए मु0रू0 140000.00 (एक लाख चालीस हजार) और उसी बैंक से किसान क्रेडिट कार्ड पर चालीस हजार रूपये, कापरेटिव बैंक सोसाइटी से बीस हजार व रिश्तेदारो से कर्ज ले रखा था। इलाहाबाद बैंक को प्रतिवर्ष फसल बेंचकर कुल 2005 तक 1.81 लाख कर्ज टैªक्टर खाते में वापसी के बाद भी घटने का नाम ही नही ले रहा था। सूखा घोषित वर्ष के बावजूद गैर कानूनी ढंग से किसान रामकुमार सिंह के नाम आर0सी0 जारी कर राजस्व विभाग को सौप दिया। राजस्व विभाग के संग्रह अमीन ने नोटिस देकर रामकुमार को हिदायत कि एक सप्ताह के भीतर सम्पूर्ण बकाया कर्ज नही चुकाया तो टैªक्टर और बन्धक जमीन नीलाम होगी। धीरे-धीरे सम्मान की रक्षा और सयानी लडकियो के हाथ न पीले कर पाने की चिन्ता, उनके चेहरे की सवाल पूछती बेवस आंखो ने पिता पर मजबूरियो की दीवार सी खडी कर दी। आखिर घर बैठी सयानी लडकी के हाथ पीले न कर पाना रामकुमार एक सामाजिक अपमान मान रहे थे।
गुडिया को चिन्ता होने लगी कि यह परेशानी कहीं कोई अनहोनी न कर दें। और दद्दा की मौत का कारण न बन जाये बस इन्ही अनसुलझे उभरे सवालों के जवाब पाने के लिये अचानक एक युक्ति सूझी और वह चल पडी अपनी सहेली नीतू से सलाह लेने के लिये गुडिया, रीना, नीतू तीनो युवतियां अपने ही गांव के उस मोहल्ले-घरों में जा पहुंची जहां वे जमीन और उनके परिवारो का बसेरा था, उस दिन चालीस घरो में घुसकर परिवार की महिलाओ से मिल घर गृहस्थी को देखा जिनमें पहले ही दिन आधा दर्जन घरो में दो जून के लिये न तो खाना था, ना जाडा काटने के लिये जडावा, और ना ही चूल्हे की आग जलाने को सूखी लकडियां थी। उन सभी परिवारो पर कुछ न कुछ कर्जा और खेतिहर परिवारों में सिंचाई के कुएं सूखे थे, अधिकतम घरो में लडके-लडकियां शादी की उम्र के 18 बसन्त पार कर चुके थे, इस एक दिन के अध्ययन का विचार-विवरण और अपनी संवाद यात्रा एक रजिस्टर पर घर पहुंचकर दिया कि उजयारे में दर्ज करते समय गुडिया के पिता रामकुमार सिंह आ गये इनकी ओर देखकर सहज ही पूछ बैठे का कर रही हो, इतना कहते-कहते खुद आगे बढकर देखा जब रजिस्टर की तरफ बरबस निगाहे गयी तो पढा और भौचक रह गये, नीतू से पूछा कि काय सबरे घरन में कर्जो है, सबरन के कुआं पानी नइ देत है कहते ही ऐसा लगा जैसे इनकी अपनी चिन्ता सबकी चिन्ता में बदल रही है चेहरे में ऐसी चमक दिखी तो लडकियो को कुछ हौसला मिला, दद्दा ने कहा सबई खो मिलजुल के कछु करने पडे, वहीं दूसरे दिन उनके साथ रामकुमार स्वयं चल पडे अपने गांव के परिवारों की हालातो से और मजबूरियो से रूबरू होने पर 170 परिवारो के अध्ययन में तकरीबन 58 लाख रूपये कर्ज का बोझ और 113 मे से 105 पूरी तरह सूख चुके थे, एक दर्जन घरों दाने-दाने की मोताजी और फांकाकसी के आंकडे देखकर कलेजा मुंह को आ गया जैसे दिल की आह खामोश जबानो में दबकर रह गयी।
नीतू के रिटायर्ड पिता (जूनियर इन्जीनियर) श्याम बिहारी सक्सेना ने भी चिन्ता जाहिर की और कहा जिनके घरों में भूख ने डेरा डाल दिया हो उन्हे अपने खाने में से ही कुछ हिस्सा भेजो इन बुझते हुये दियो में तेल पडते रहना चाहिये, सहेलियो ने अपने माता-पिता का उत्साहित सहयोग देख रसोई में रखे भोजन को उन घरो तक पहुचाना शुरू कर दिया, पर यह सिलसिला अधिक दिनो तक कैसे चल पाता जबकि बस्तियों के सारे घर के हालात एक जैसे ही थे।इसी उहापोह में एक युक्ती इन सहेलियो को और सूझी कि हम क्यो न कुछ घरो की महिलाओ के साथ बैठकर समाधान नही तो मुसीबत का विकल्प खोज लें, पडोसी महिलाओ को घर-घर से बुलाने, बुलावे का बहाना दादरे को आधार बनाया, एक सार्वजनिक स्थान पर एकत्रित 40-45 घरो की महिलाये एकजुट हुई, जहां पर ढोलक-मंजीरा पहले से मौजूद था देखते ही देखते ढोलक की थाप और मंजीरों की खनक से सुरताल का जो माहौल उस सूखे में बना उसने खामोश जबानो के शब्द खोल दिये सांझ होने के पहले जब ढोलक की थाप रूकी तो इन तीनो सहेलियो ने बुलावे पर आयी महिलाओ से एकत्रित आखत (संकलित अनाज) जो रस्मानुसार प्रत्येक महिला 100-200 ग्राम साथ में लाती है उसे वहां बैठी तीन महिलाओं में विभाजित कर देने की इच्छा जाहिर की और बताया कि गांव के अध्ययन से यह बदहाली की की इबारत उभरी है, जिससे हमे ही पार पाना है, हम महिलाये चाहे तो अपने घर्न की चिन्ता तौ खत्मै कर सकत है, पडोसिन बहन के घर को सुखदुख भी बांट सकत है। नीतू बोली यह दिन एक जैसे ना रहे इसे ऐसे अकाल के दिनन में गा-बजा के काटवे की परम्परा बनावे की जरूरत है, सयानी-बूढी महिलाओं के हाथो में जब वृद्ध निराश्रित महिला-प्यारी बाई, हरकुवंर, सहदोमंसूरी की कोछे में अनाज झलकने लगा तो उनकी आंखो में आशा के आंसू झलक पडे इन आसूओं ने जो उस दिन एकत्र महिलाओ को कर्तव्य बोध कराया वह समाधान की दिशा में मील का पत्थर बना गया था। हांलाकि इस राह में चल पडी इन तीनो सहेलियो को गांव के ही लोगो से, युवको से ताने भी सुनने पडे पर इन्हे परवाह किसकी जब जीवन ने मौत से लडने का निर्णय ले लिया हो हर सप्ताह किसी न किसी मोहाल में महिलाओं की दादरे की महफिले सजने लगी, एक-एक कर मुफलिसी के शिकार घरो को रषद पहुंचने लगी फिर तो ऐसा हो गया कि महिलाये पानी के बर्तनो में आटा, दाल डालकर अपने परिवार के लोगो से छुपाकर भूखे परिवारो के घरो में जाकर देने लगी। कर्जदार परिवारों की महिलाओं की जागरूकता से यह हुआ कि वह अपने-अपने घरो में सबको समझाने लगी कि जब फसल हुइये तब कर्जो देव कौन सवै दिन एक से बने रें।
कुछ दिन बाद गर्मी का तापमान बढने लगा तो रहे सहे कुओ और हैण्डपम्पो का पानी भी जवाब देने लगा। गांव के 4-5 ही ऐसे जल श्रोत बचे जिनमें पानी हिचकोले ले रहा था, एक दिन दादरे में चर्चा कर दूसरे दिन करीब तीन दर्जन महिलायें अपने गांव में ही जूनियर विद्यालय पर लगे हैण्डपम्प को सूखने से बचाने के लिये बर्बाद पानी को सोख्ता टैंक में बदलने का काम शुरू कर दिया-हाथ में कुदाल और अपने-अपने घरो से लायी डलिया से टूटे रोडे, माहौल के लोगो के लिये कौतुहल का विषय बना था देखते ही देखते एक बडे आकार के गढढे को रोढा, पत्थर, कंकड के ढेर से पास बहते पानी की धारा उसी में डाल अपने-अपने घर वापस आ गयी एक सप्ताह बाद पडोस की श्रमदानी महिला जब उसी नल में पानी भरने गयी तो उसकी खुशी का छोटा सा ही सही श्रम का सागर हिलोेरे लेने लगा इस नल से अब सहज ही भरपूर पानी आ रहा था इस सिलसिले को गांव के मस्जिद के पास, प्राथमिक स्कूल, मढिया आदि सार्वजनिक स्थानो पर बंद होते जा रहे हैण्डपम्पों को पूनः जीवित कर इन नालियों ने बिना किसी मदद के न केवल अपनी प्यास को बुझाया बल्कि उस क्षेत्र को सूखा में उपज रही समस्याओ को समाधान की एक अनूठी पहल बना दिया। कर्जा रे फंदा मुक्ति आन्दोलन और जयसागर तालाब श्रमदान अनुष्ठान चरखारी में अपनी टीम के साथ सामिल होकर पानी के प्रबन्ध की चाह और किसानो को कर्जमुक्त होने की राह आसान हुई, उस गांव मं कर्ज और भूख से समा रहे परिवारों के लिये आशा की किरण बन जीने की ललक और हौसलों को जिन्दा रखने की कूबत पैदा कर आकाल की मांद में सूरताल एक मिशाल बनी हतासा की राह में चल पडे परिवारों के लिये वरन उन सभी लोगो की सांच में एक सवाल खडा करने के लिये कि क्या भूख और मुफलिसी का मंजर सिर्फ खुदकुशी है!
‘‘सबकी पीडा अपनी पीडा और कुछ अभिव्यक्ति नही।
तोडे जो विश्वास किसी का अपना ये व्यक्तित्व नहीं।’’
लेखक 
आषीश दीक्षित सागर


 

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