Thursday, March 10, 2011

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विश्व महिला अधिकार दिवस 8 मार्च 2011 विशेष
पत्थर मण्डी में पिस रहा महिला अधिकार - लज्जा !

  •  संविधान के अनुच्छेद 39(1) की कब्रगाह है खदानें
  • घरों में गिरते है ब्लास्टिंग के पत्थर, लहुलुहान होती अबला
  • समान काम, समान वेतन और लिंग भेदभाव का आईना हैं बुन्देलखण्ड़ का पत्थर उद्योग
संसद से लेकर सचिवालय तक और परिवार से लेकर समुदाय तक महिला अधिकारों के लिये महिलाओं की लड़ाई भले ही आज प्रतिशत के आकड़ों व आरक्षण की आग में अरमानों का बलिदान कर रही हो मगर विश्व महिला अधिकार दिवस का विशेष दिन तो ने अपने हूकूक, लज्जा और लिंग भेदभाव का एहसास कराता ही है इसी कड़ी में विश्व बिरादरी के साथ साथ भारतीय लोकतंत्र में पिछले 6 दशको से अधिकारों की बाट में पिसती हुई महिला की वास्तविक तस्वीर देखने के लिये कही सुदूर नहीं आप बुन्देलखण्ड की पत्थर मण्डी में काले सोना को तोड़ती हथौड़ो की ठोकर में चल रही मौत की खदानों में चले आये ंतो यकीनन कह सकते है कि क्रशर के गुबार में खत्म हो रही है महिलाओं की जिन्दगीं।
काबिले गौर है कि संविधान के अनुच्छेद 39(1) में महिलाओं को समान वेतन के बदले समान काम का जिक्र किया गया है जिसके लिये आज भी महिला संघर्षरत है वहीं कार्य क्षेत्र में लैगिंक भेदभाव निषेध कानून अनुच्छेद 16(1) व (2) की अवमानना करना भारतीय दण्ड संहिता के विपरीत है जहां केन्द्र सरकार ने वर्ष 2010 शिक्षा को अनिवार्य से लागू करने के लिये शिक्षा को मौलिक अधिकारों मे शामिल करते हुये आर0टी0ई0 कानून 2010 पारित किया और इस काम को सुनिश्चित करने के जिम्मेदारी राज्य सरकार को प्रदत किया है। लेकिन बुन्देलखण्ड के बांदा, चित्रकूट, महोबा जनपदों की पत्थर खदानों में इन सभी के साथ खान अधिनियम 1952 की धारा 40 के प्रावधानों के अनुसार किसी भी खदान में 18 वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति महिला के काम करने पर प्रतिबन्ध है वहीं उन्हें पत्थर तोड़ने के समय चेहरों पर मास्क, चिकित्सा सुविधा, काम करने के निश्चित घन्टे, समान मजदूरी, समाजिक सुरक्षा जैसी बुनियादी बातो का उल्लेख किया गया है मगर इनका अनुपालन ये पत्थर खदाने महज कागजी कार्यवाही में ही करती है। जहां इन तीनों जनपदो में बांदा 190, चित्रकूट 272, महोबा 330 क्रशर हैं और उनसे जुडी हुई एक सैकड़ा पत्थर मण्डियां भी है जहां मजदूर दिहाडी पर पत्थर तोड़ने का काम करते है इन मण्डियों की महिला मजदूर निवासी जवाहर नगर, कबरई की कैलशिया पत्नी मुन्नीलाल अहिरवार, जमुना पत्नी छेदीलाल, दौलत पत्नी बलदू प्रजापति का कहना है कि इस पेसे से कोई खुशी से नहीं जुडता है हमे 3 घन मी0 (एक सैकड़ा) पत्थर तोड़ने के बाद 50 से 100 रू0 आठ घन्टे मजदूरी करने के बाद मिलते है वहीं इन पत्थर मण्डी से लेकर पत्थर खदानो तक अश्लील शब्दों को सुनना, आदमी से ज्यादा काम बदले में कम मजदूरी, इज्जत के साथ खिलवाड़ और जिन्दगी का फलसफा कब इन पत्थर खदानों में जिनकी गहराई 300 फुट तक है तथा जिनमें 4 इंच से 6 इंच मोटी ब्लास्टिंग की जाती है दफन हो जाये की कोई गारन्टी नहीं है। संविधान की धारा-375 के तहत शील भंग करना, धारा-511 के तहत इसका प्रयास के मामले बड़ी आसानी से यहां देखने को मिलेगे 9 से 14 वर्ष की अन्डर ऐज किशोरियां जिन्हें विवाह के बाद एक नये परिवार का स्रजन करना है उनको गर्भाशय का अल्सर, टी0वी, सिल्कोसिस की गंभीर बिमारियां होना भी आम बात है।
अभी हाल ही में कबरई के पचपहरा पहाड़ के गाटा सं0-967 में शाम 3 बजे की गयी ब्लास्टिंग से 5 किलो का पत्थर वहीं के निवासी मोहन वर्मा जवाहर नगर के घर पर जाकर गिरा जिससे उसकी टी0बी0, मकान बुरी तरह छति ग्रस्त हो गया जबकि इस घटना से थोड़ी देर पहले उसकी पत्नी पत्थर गिरे स्थान पर बैठी हुयी अनाज बीन रही थी इसे किस्मत का खेल कहेगें कि एक बड़ी घटना इस परिवार पर घटने से रह गयी। कहां है इन खदानों में महिला अधिकार के पैरोकार जिन्हें पुलिस थानों में वर्दी पहनाकर बैठाया गया है और उनकी ही नाक के नीचे सप्ताह में औसतन दो महिला पुरूष मजदूर मौत के मुह में समा जाते है। खनन् माफियाओं की हवस का शिकार बनती है मजलूम महिलायें और उनकी बेटियां आखिर क्या करें वे अकीदतमंद गरीब लोग जिनकी मजबूूरी है पेट की भूख मिटाना और हथौड़ो को थाम कर अपने दूधमुहे बच्चे के साथ सौन्दर्य व श्रम का तमाशा करना। हाल बेहाल बुन्देलखण्ड में प्राकृतिक आपदा के साथ मानवाधिकारों का हनन् और महिला की अस्मिता दोनो ही पत्थर माफियाओं, राजस्व वसूल करने वाली प्रदेश सरकार की मुलाजिम है।
’’ उजाड़ के खेल में मनुष्य की भागेदारी है, प्रकृति फिर भी परोपकारी है ।
अस्मिता को बचाने के लिये लड़ रही नारी है, यातना दर यातना आज भी जारी है।। ’

-आशीष सागर, प्रवास (बुन्देलखण्ड

Tuesday, March 08, 2011

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Story - विकास है कि सुधरने का नाम नहीं लेता! : बुन्देलखण्ड

तो फिर क्या हुआ कि 7 करोड़ लोगों के पास एक से अधिक मकान हैं वहीं 11 करोड़ लोग घरों से महरूम। यह अलग बात है कि 600 टन सोना जेवर बनाकर एक आम भारतीय महिलाओं के द्वारा अलमारियों में बन्द कर दिया जाता है। मगर दुनिया के 88 करोड़ गरीबी रेखा के नीचे बसर करने वाले लोगों में 33 करोड़ भारतीय ऐसे भी हैं जो कि 14 रूपये रोज की कमाई पर जिन्दगी को चलाने के साधन जुटाने में आशा और प्रत्याशा के बीच संघर्ष कर रहे हैं।
पलायन और गरीबी का मंजर है ! गोबरी
बुन्देलखण्ड़ गाहे-बगाहे किसी न किसी विवाद, विकास है कि सुधरने का नाम नहीं लेता है जैसे शब्दों से चर्चा में बना रहा है। कुछ ऐसी ही देखने लायक बानगी बांदा जनपद के नरैनी विकास खण्ड के अन्तर्गत फतेहगंज क्षेत्र की है जहां जिन्दगीं की जददो जहद से लड़ने का बीड़ा 60 दशको से उठाये हुये 11 मजरों के 4200 मतदाता जिनमें की 405 मवेसी, गौड़ आदिवासी परिवार भी है जिनके पास आधुनिक संसाधन की तो बात ही दूर है जीवन गुजारने वाले आम साधन भी बमुश्किल जुगाड़ से तैयार हो पाते है।
इन 11 मजरों की ग्राम पचांयत डढ़वामानपुर दस्यु ददुआ के खौफ से लेकर ठोकिया, रागियां, बलखड़िया के अतिरिक्त स्थानीय गरीबी से उपजे अपराधिक गिरोहों के कारण चर्चा में बनी रहती है। फतेहगजं, कालीडाढ़ी,गोवरी गुड़रामपुर, बोदानाला, करमाडाढ़ी, आलमगंज, मनसुखपुरवा, डढ़वा, बंजरगपुर, लगनाहीपुरवा, बिल्हरिया मठ के बाशिंदे कल फिर एक मर्तबा हमें गुजरे 4 माह पहले गोबरी आदिवासियों के साथ दीपावली में दीपदान कार्यक्रम के दौरान देखने को मिली तस्वीर के मुताबिक मिले। इससे पहले भी लगातार मार्च 2010 से इनके सम्पर्क में रहकर इनकी जनपैरवी, लोकअधिकारों के साथ साथ पुनर्वास की आवाज संगठन के माध्यम से उठाई जा रही है। जहां मई 2010 में एक सर्वे रिर्पोट में इन गावों की बदहाली का खुलासा राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्र में किया गया उसमें प्रदेश के ग्राम विकास मंत्री दद्दू प्रसाद, जिलाअधिकारी बांदा श्री रजंन कुमार का यह कथन कि "हम उन क्षेत्रों मे विकास कार्य करवा पाने में असमर्थ हैं इसका कारण वहां दस्यु प्रभाव, संवेदनशील इलाका है, उधर हमारी व्यस्था व पुलिस बल असहाय है।"  की बात आज भी रह रहकर जहन में उठती है कि क्या सरकारें और शासन बीहड़, आदिवासी बाहुल्य, दस्यु प्रभावित समस्याओं से इतने खौफजदां है कि उनकी प्रसानिंक व्यस्था तक पंगु हो जाती है। यह मसला अहम है की जहां बीती कई ग्राम पंचायतो में फतेहगंज के सर्वजन आबादी वाले प्रधान अपना परचम लहराते थे वहीं इस दफा आदिवासी बस्ती के मगर अनसूचित जाति के यादव परिवार की महिला शान्ती देवी प्रधान निर्वाचित हुई जिसने फतेहगंज के कामता पटेल को 288 मतो से पराजित कर प्रधानी पर कब्जा जमाया ये सबकुछ 405 आदिवासियों की लामबन्दीं के कारण ही हो पाया है। इसकी बजह वे विकास खामियां है जिन्होनें इन आदिवासियों को बेसिक शिक्षा, मानव अधिकार, रोजगार, आदिवासियों का दर्जा जो कि इनको मध्य प्रदेश व अन्य राज्यों मे हासिल है कि नजर अनदेखी और वन क्षेत्रों में वन विभाग के हस्तक्षेप बढ़ाने का काम किया है।
गोबरी गांव के जागरूक किसान साधूराम, बुद्धलाला, बुद्धप्रकाश के साथ युवा रामदीन और पूरी बस्ती में मात्र कक्षा आठ पास रामगरीब ने बताया कि हमारे लिये सरकारी योजनाऐ, मनरेगा जाॅबकार्ड, स्वास्थ्य सुबिधा- समेकित बालविकास परियोजना, बी0पी0एल0 शौचालय, इन्दिरा आवास जैसी योजनाऐ महज सरकारी खाना पूर्ती में चलाई जाती है वहीं अभी तक प्रदेश सरकार ने हमे आदिवासियों का दर्जा भी प्रदान नहीं किया है। हमारे बीच में कुछ काम करने वाले स्वयं सहायता समूह को भी थाने की पुलिस ने दस्यु गिरोह दिखाकर बन्द करवा दिया तो कभी गांव वासियों को फर्जी इनकाउन्टर में डकैतो के कपड़े, असलहे, गोलियों के खोखे बरामद दिखाकर शोषण किया गया है। गौर तलब है कि इन गांवो की संगीता, शोभा, शान्तीं, तिरषिया, सुरनिया, फूलारानी, रत्ना, लक्ष्मनियां, फूलकली, इन्दा, माया सहित सैकड़ो महिलायें है जिन्हें गरीबी कार्ड, राशन कार्ड, विधवा वृद्धा पेंशन उपलब्ध नहीं कराई गयी है। इन बस्तियों मे चलने वाले सरकारी प्राथमिक विद्यालय, आकनबाड़ी केन्द्र वर्ष के 365 दिन डकैतो की निगरानी में ताला बन्द रहते हैं। वहीं तत्कालीन निर्वाचित ग्राम प्रधान शान्ति देवी पत्नी रामसिया यादव ने बताया कि पिछली पंचवर्षीय योजनायों में मात्र 35 शौंचालय 4200 मतदाताओ के बीच बनवाये गये थे। जिनमें 350 बी0पी0एल0 कार्ड धारक परिवार भी शामिल थे।
वहीं इस वर्ष की शुरूआत में मनरेगा योजना के तहत 18 काम भूमि समतलीकरण के शुरू करवाये जा चुके हैं। जिनमें कि 200 जोब कार्ड धारक काम कर रहे हैं। लेकिन गांव वालों के मुताबिक शान्ति यादव की प्रधानी प्रधानपति रामसिया और उसके पुत्र सन्तोष यादव की नजर में पैबन्द है। जिन्हे फतेहगंज के दबंग राजनीतिक पार्टी के लोग व स्थानीय बाहुबली परिवार चला रहे हैं। शायद एक दफा फिर उन्हे अपनी बदहाली और बेकारी से उबरने का साधन उपलब्ध नहीं हो पायेगा और न ही जंगलों में लकड़ियां काटकर गुजर बसर करने वाले, गर्मी की ऋतु में महुआ की फसल से रोटी का जुगाड़ कर बच्चों की भूख और कुपोषित शरीरों की जर्जर काया को थोड़ी सी राहत देने की हिम्मत करने वाली महिलायें खुशहाल जीवन की उम्मीद कर सकेंगी। बताते चले कि गोबरी गांव के तकरीबन 200 लोगों में 1 सरकारी हैण्डपम्प लगा है। जिसका पानी भी फ्लोराइड युक्त है। यहां बकरी पालन इन आदिवासियों का एक और साधन है। जीवन संसाधन को महफूज करने का। मगर कब तक सामाजिक असन्तोष से विछिप्त यह लोग नक्सलवाद की अंधेरी गलियों में अपनी ही लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ हथियार नहीं उठायेंगे और कब तक इन्हे डरा-धमका कर अस्मिता का व्यापार, बच्चों को शिक्षा से बेदखल करने की साजिश, गर्भवती महिलाओं को एनिनिया, कुपोषण, टी0वी0 की गम्भीर बीमारियां देने का खेल विकास की मुख्य धारा में जीवन यापन कर रहे लोगों के बीच चलता रहेगा।

आशीष सागर,
प्रवास बुन्देलखण्ड

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Sunday, March 06, 2011

विश्व गोरैया दिवस मनाये - प्रकृति का उपहार बचाए

मित्रो आगामी 20 March को एक बार फिर हमारी घरो की शान
और काकी की दुलारी ची - ची मुडेर पर चहकने वाली गोरैया को बचाने की जिम्मेवारी 
का दिन है चलो हम हमेशा के लिए इनको चित्रकार की पेंटिंग ,कवियों की कल्पना और आगन की बाते 
मात्र बनने से रोके , अभी समय है की इनको अपनी पहचान ,घरो की दस्तक और सामाजिक रीती 
के लिए बचाए ताकि हमारा इको सिस्टम और आदमी की सभ्यता दोनों महफूज - पुख्ता रहे ये अपील नहीं हमारी 
आपसे प्राथना है .........आपका एक प्रयास जैसे - इनको दाना -पानी ,घोसलों की छूट देना ,घरो की खिडकिया खोल 
कर इनका स्वागत करना ही इनके सह अस्तित्व को बचाए रख पायेगा , अगर आप और हमने एक गोरैया को भी अपने आगन 
में खुले मन से घोसला बनाने को इजाज़त दी तो यकीन मानिये की ये ची - ची मीठी से बोलिया आपको प्रकृति का अनुपम 
उपहार तो देगी ही साथ ही फिर से हम कह पायेगे की - आगन में बनेगा अब की गोरैया का घोसला !
( आओ विश्व गोरैया दिवस मनाये - प्रकृति का उपहार बचाए )