Wednesday, March 23, 2011

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(Article) - घर आंगन की चिड़िया है गौरैया


घर आंगन की चिड़िया है गौरैया

विश्व की 14000 पक्षी प्रजातियों में से कुछ ऐसी भी हैं जिन्हे बस्ती का पक्षी या घरेलू जनमित्र कहकर पक्षी जगत में ही नहीं आम सामाजिक जीवन में भी मनुष्य के बदलते परिवेश के साथ और कभी गुजरे जमाने की स्मृतियों में पुकारा जाता था। समय बीतता गया और विस्मृत होते बचपन के भूले बिसरे पलों के साथ-साथ विकास की धुन्ध में मेरे बचपन की करीबी मित्र गौरैया अब लगभग प्रकृति से ही नहीं हमारे घरों के आंगन, छतों की मुण्डेर, पक्के मकानों में ट्यूब लाइट पर छुपते छुपाते घोंसला बनाने की आदत से काफी दूर जा चुकी है। गौरैया को पेसरी फाम्र्स (छोटे व मध्यम आकार के पक्षी) वर्ग में रखा गया है इसे अंग्रेजी व लैटिन भाषा में हाउस स्पैरो कहा जाता है वहीं छः इंच से 15 सेमी0 तक लम्बी गौरैया को तमिल में अंगाड़ी कुरूवी और मलयालम में आड़िकलाई कुरूवी जिसका शाब्दिक अर्थ है घर बाजार का पक्षी व रसोई घर की चिड़िया। इसी के विलुप्त होते जीवन की एक छोटी सी पुर्नजीवित परिकल्पना को एक मर्तबा फिर पतझड़ से सूखे पेड़ों में प्रवास करने की जद्दो जहद के साथ बुन्देलखण्ड में मनाया गया विश्व गौरैया दिवस।
विकास की आपाधापी में अब शायद लोगों को प्रकृति से इतनी दूरियां की आदत सी पड़ गयी है कि कभी उनके घर आंगन में बैठकर चीं-चीं की आवाज करने वाली गौरैया का जीवन भी अब रास नहीं आता है। गौरैया की बातों को याद करते हुए दूसरे की क्या कहें हमें अपना ही बचपन याद है कि घर में लगे अनार के पेड़ मंे बहुत स्नेह के साथ बैठती थी गौरैया। गांव में तो इसका परिदृश्य ही कुछ अलग हुआ करता था। गर्मी की छुट्टियों में जब कभी मां के साथ ननिहाल जाना हुआ करता या फिर बाबा दादी के पास गांव में गर्मी की छुट्टियों और पके हुऐ आमों को चुराने की ललक हुआ करती तो इस गौरैया के जीवन के अनछुऐ पहुलुओं से सामना हो जाता। गौरैया की अठखेंलियां देखकर प्रकृति के रंग को सलामत रखने की दुआ जाने अनजाने मुंह से निकल जाया करती थी। मगर यह क्या हुआ हमारी उम्र के फासलों के साथ विकास का कारवाँ, गांव की तस्वीर और हमारे घरों की प्राकृतिक चेतना सिमटती चली गयी। उसमें कहीं न कहीं अब अस्मिता के संघर्ष से जूझ रही अस्तित्व को बचाने की जुगाड़ में विलुप्त होती गौरैया किसी न किसी बहाने की सही आज विश्व गौरैया दिवस पर बांदा जनपद के ग्राम गोखरही के किसान परिवार संतराम यादव के आंगन में बिछी निबाड़ की खाट के पावे में बैठी हुयी दिखाई दे गयी। गौरैया के बारे में जितनी जानकारी पर्यावरण, वन्य जीव क्षेत्रों से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं के माध्यम से उपलब्ध हो पायी है। उनके मुताबिक कभी गांव जुड़ई कीट खाकर जीवित रहने वाली यह घरेलू चिड़िया अब खेत खलिहानों से विलुप्त होने की कगार पर है। जलवायु परिवर्तन के कारण गौरैया की प्रजनन क्षमता में भी समय के साथ बदलाव आये हैं। एक ही मौसम में कई बार अण्डे देने वाली मटमैली-भूरे रंग की तथा छाती पर एक काली सी पट्टी लिये हुऐ गौरैया कभी कभी बया चिड़िया की तरह दिखाई पड़ती है। कहना गलत नहीं की अगर बया और गौरैया को साथ-साथ देखा जाये तो धोखा होना लाजमी है।
जानकार बताते हैं कि जबसे किसानों ने खेतों में जैविक कृषि से मुंह चुराकर अधिक उत्पादन खेतों से लेने के लिये हाइब्रिड बीजों, कीटनाशक दवाओं व रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग शुरू किया तभी से बदलते क्लाइमेट से उत्पन्न होने वाले अनाज के दानों को खाकर गौरैया भी मरने लगी है। कभी प्राकृतिक आपदा मसलन भारी वर्षा, ओला से भी यह बांदा-चित्रकूट के नेशनल हाइवे-76 पर भारी मात्रा में सड़कों पर मृत अवस्था में पायी जाती है। इसके लिये दोषी हैं वे सरकार की नीतियां जिन्होने गौरैया के साथ-साथ यहां पाये जाने वाले अन्य दुर्लभ पक्षियों के घौंसले बनाने के संसाधन हरे महुआ के पेड़, अर्जुन व आम के पेड़ों को भी फोरलाइन सड़कों में काटकर दफन कर दिया। गौरैया चिड़िया की उम्र 15 से 20 वर्ष के बीच अनुमानित की गयी है। आज इसके पुनर्वास की एवं घरों में पुनः एक घोंसला बनाने की नितान्त आवश्यकता है। कहीं कल यह चिड़िया कवि की कल्पना, चित्रकार की कैनवास में पेन्टिंग का रूप लेकर अवशेष में तब्दील न हो जाये। इन्ही सब गौरैया से जुड़े सामाजिक सरोकार के मुद्दों को लेकर विश्व गौरैया दिवस मनाया गया। जिसमें इसके जीवन संरक्षण के लिये एक से प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति के करीब आने की गुजारिश की गयी है। साथ ही किसान भाईयों को अपने खेत खलिहानों में गौरैया को वापस लाने के लिये जैविक कृषि की तरफ निर्णायक कदम उठाकर प्रकृति के संसाधनों के साथ गौरैया के जीवन प्रवास की उपकल्पना उतारने के लिये सकारात्मक परिचर्चा भी ग्राम गोखरही में महिलाओं, ग्रामीणों के बीच रखकर विलुप्त होते प्रकृति के उपहार को संजोने की कोशिश की गयी।

आशीष सागर,
प्रवास बुन्देलखण्ड