Friday, November 18, 2011

प्रवास का श्वेत-पत्र -‘‘ अलग राज्य बना तो खत्म होगा बुन्देलखण्ड ’’

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प्रवास का श्वेत-पत्र -‘‘ अलग राज्य बना तो खत्म होगा बुन्देलखण्ड ’’
आशीष सागर
उत्तर प्रदेश के चार टुकड़े हुए तो बुन्देलखण्ड और शेष बचे उत्तर प्रदेश में जिले तो कम होंगे लेकिन चुनौतियां भरपूर हांेगी। इन राज्यों में न तो वन होंगे, न ही पर्याप्त संख्या में उद्योग। मध्य प्रदेश के छतरपुर, दमोह, दतिया, पन्ना, सागर, टीकमगढ़ एवं उत्तर प्रदेश के बांदा, चित्रकूट, हमीरपुर, झांसी, जालौन, ललितपुर व महोबा को बुन्देलखण्ड राज्य के नक्शे में देखा जाता है। केन्द्रीय मंत्री मण्डल मंे इस क्षेत्र विशेष को मिले प्रतिनिधित्व व विधान सभा चुनाव 2012 के बिगुल के साथ एक बार फिर यह मुद्दा गर्म होता जा रहा है।
-ः बंटवारे का गणित:- बुन्देलखण्ड- 13 जिले (बांदा, चित्रकूट, हमीरपुर, झांसी, जालौन, ललितपुर, महोबा, उत्तर प्रदेश क्षेत्र से एवं छतरपुर, दमोह, दतिया, पन्ना, सागर, टीकमगढ़ मध्य प्रदेश से)। मुश्किल ही मुश्किल- इस पथरीले इलाके में हमेशा पानी का संकट, सूखा, भुखमरी व किसान आत्महत्याओं की युगलबन्दी, कोई स्थायी उद्योग नहीं, कृषि नाम मात्र की, ज्यादातर ऊसर-परती व ऊबड़, खाबड़ जमीन, पलायन आय का अतिरिक्त कोई संसाधन नहीं है
वन क्षेत्र- उत्तर प्रदेश के सात जिलों में अनिवार्य 33 प्रतिशत वन क्षेत्र के मुकाबले बांदा में 1.21 प्रतिशत वन क्षेत्र व अन्य की स्थिति, 21.6 प्रतिशत चित्रकूट अधिकतम से ज्यादा नहीं है। मध्य प्रदेश के 6 जिलों में छतरपुर, पन्ना इलाके में ही आंशिक वन क्षेत्र है वह भी ईंधन उपयोगी ही है।
खनिज सम्पदा- बुन्देलखण्ड के चित्रकूट मण्डल के चार जिलों में जिस गति से खनिज संसाधनों का दोहन हो रहा है। चाहे वन हो या पहाड़ उसे बचा पाने की रणनीतियां नहीं हैं। यही स्थिति मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ व छतरपुर की है। जहां सरकार ने आस्ट्रेलिया की एक कम्पनी को बेतहासा खनन के लिये पहाड़ों व नदियों के पट्टे कर दिये हैं।
कृषि क्षेत्र- अर्थशास्त्री डाॅ0 अरविन्द मोहन व विश्वबैंक की रिपोर्ट कहती है कि हमारे अध्ययन का उद्देश्य गरीबी के कारकों का पता लगाना था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में करीब 57 प्रतिशत पूर्वी व मध्य प्रदेश में 40 प्रतिशत उद्योग क्षेत्र है। जब कि बुन्देलखण्ड में तीन से चार प्रतिशत है। कृषि क्षेत्र बुन्देलखण्ड में 5 प्रतिशत और पश्चिमी उत्तर प्रदेश व पूर्वी क्षेत्र में 45 प्रतिशत है। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, असम तथा पश्चिम बंगाल के 300 गांवों का सर्वेक्षण करके जो तथ्य जुटाये गये हैं उसमें बुन्देलखण्ड भी शामिल था। तीन प्रमुख कारण- (1) विवाह (2) बीमारी (3) बंटवारा। यही बुन्देलखण्ड की गरीबी के लिये वास्तविक जिम्मेदार है। पहला कारक विवाह यहां व्यापार की तरह है। बीमारी के खर्चों की पूर्ति न कर पाने के कारण लोग गरीबी के चक्र में फंसते हैं। बंटवारे के कारण किसी समय के जमींदार आज छोटे-छोटे काश्तकारों के रूपों में जीवन बसर कर रहे हैं। इन तीनों कारकों मंे एक बात समान है। वह यह है कि यहां मानवीय विकास का आभाव है। दक्षिण भारतीय राज्यों में इससे इतर वहां विकास के माडल अप्रत्याशित हैं क्योंकि ये तीन कारक इन क्षेत्रों में आंशिक दिखाई देते हैं।
क्षेत्रफल- करीब 78,000 वर्ग किलोमीटर बुन्देलखण्ड का क्षेत्र है। सवा 2 करोड़ के करीब आबादी में 95 फीसदी तंगहाल हैं। उद्योग- आजादी की औद्योगिक क्रान्ति को छोड़ दे तो यहां ऐसी कोई परियोजना नहीं आई है जो लोगों को रोजगार दे सके। पूर्व प्रधानमंत्री स्व0 इन्दिरा गांधी के जमाने में झांसी में बी0एच0ई0एल0 (भेल), सूती मिल के साथ बिजौली में औद्योगिक एरिया विकसित किया गया था। आज भेल को छोड़कर अधिकांश उद्योग बंद हो चुके हैं। बरूआसागर का कालीन उद्योग, रानीपुर के करघे चरमरा गये हैं, मऊरानीपुर का टेरीकाॅट गरीबों से बहुत दूर हो चुका है, चित्रकूट की बरगढ़ ग्लास फैक्ट्री, बांदा का शजर व बुनकरी उद्योग और कताई मिल फैक्ट्री के हजारों मजदूर परिवारों सहित पलायन कर गये हैं। नदियां- गंगा, यमुना, वेत्रवती, केन (कर्णवती), पहूज, घसान, चंबल, बेतवा, काली सिंघ, मंदाकिनी, बागै यहां की सदानीरा नदियंा रहीं हैं। जिन पर आश्रित रहती है बुन्देलखण्ड की कृषि। बड़े बांध या विनाश परियोजनायें- केन बेतवा नदी गठजोड़ राष्ट्रीय परियोजना बांध प्रयोगों के प्रयोगशाला क्षेत्र स्वरूप बुन्देलखण्ड के लिये प्रस्तावित है। परियोजना की डी0पी0आर0 रिपोर्ट के अनुसार 22.4 करोड़ रूपये 31 मार्च 2009 तक खर्च हो चुके हैं। जब कि इसकी कुल प्रस्तावित धनराशि 7,614.63 रूपये (सात हजार छः सौ पन्द्रह करोड़ रूपये) है। 90 प्रतिशत केन्द्र अंश व 10 प्रतिशत राज्य सरकार के अनुदानित कुल 806 परिवारों के विस्थापन वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार और 10 गांवों के पलायन की पुरोधा है यह परियोजना। परियोजना क्षेत्र में दौधन बांध एवं पावर हाउस 2182 हेक्टेयर भूमि में बनाया जाना है। इस योजनान्तर्गत 4317 हेक्टेयर कृषि जमीन नहरांे के प्रबन्धन पर खर्च होगी। केन बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना के अन्तर्गत छः परियोजनाओं व नहरों के विकास में 6499 हेक्टेयर भूमि किसानों से अधिग्रहीत की जानी है। बुन्देलखण्ड के पर्यावरण विद, सामाजिक कार्यकर्ता, संगठनों ने परियोजना प्रस्ताव के समय से लेकर आज तक इसका विरोध ही किया है। इसके अतिरिक्त बुन्देलखण्ड में 3500 किलोमीटर लम्बी नहरें, 1581 नलकूप भी स्थापित हैं। तालाबों की तबाही- टीकमगढ़, छतरपुर, महोबा के विशालकाय सागर जैसे तालाबंे और चन्देलकालीन जलस्रोतों की दुर्दशा किसी से छुपी नहीं है। मिटते हुए जल संसाधन बुन्देलखण्ड में सूखा जनित आपदाओं के प्रमुख कारण हैं।
खनिज दोहन- बुन्देलखण्ड में यंू तो हीरा, सोना, ग्रेनाइट, अभ्रक, बालू, रेत, सागौन, शजर, लौह अयस्क भण्डार (छतरपुर), यूरेनियम के अकूत भण्डार हैं। यहां की खनिज सम्पदा से उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड वाले सात जनपदों से ही 510 करोड़ रूपये का वार्षिक राजस्व उत्तर प्रदेश सरकार को प्राप्त होता है और राज्य सरकारों को सभी खनिज सम्पदाओं के दोहन से 5000 करोड़ रूपये राजस्व मिलता है लेकिन बेतहासा खनिज दोहन बुन्देलखण्ड के स्थायी विकास और राज्य की अवधारणा में बाधक साबित होने के मजबूत तथ्य हैं।
बिजली प्लांट- झांसी के पास पारीछा वियर में ही विद्युत संयत्र से 660 मेगावाट बिजली उत्पादन होता है। अन्य हिस्सों में बिजली संयत्र स्थापित नहीं किये जा सके हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव श्री बी0के0 मित्तल के मुताबिक जिस तरह से उत्तराखण्ड में नये उद्योग लगने से उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती जिलों में उद्योग या तो बंद हो गये या फिर उत्तरखण्ड में पलायन कर गये हैं। यदि उत्तर प्रदेश के चार हिस्से होते हैं तो विशेषकर बुन्देलखण्ड की स्थिति और भी अधिक भयानक साबित होगी। ज्योग्राफिकल इन्वायरमेन्ट साइंस के पूर्व निदेशक बी0के0 जोशी के अनुसारजर्जर हो रही ऐतिहासिक सम्पदाओं के संरक्षण के बिना बुन्देलखण्ड राज्य की परिकल्पना एक राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने से अधिक नहीं है। जहां सरकारी विभागों में मानवीय श्रम वाली सरकारी नौकरियां खत्म होती जा रही हैं और उनका स्थान कम्प्यूटर, सूचना तकनीकी नेे ले लिया है। उसी के विपरीत राज्य सरकारें छोटे राज्यों के गठन को तूल देकर अपने अधिकार क्षेत्र, राजनीतिक वर्चस्व और देश के अखण्ड विकास में जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाई-भतीजा वाद के आधार पर अलगाव और अस्थिरता की स्थिति व्याप्त करने की तरफ अग्रसर हैं। बिना प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, लोक कला के पुनर्वास बगैर किसी भी राज्य की कल्पना निराधार है।
सामाजिक कार्यकर्ता आशीष सागर, बांदा

पहाड़ बचाने को “जुझार” गाँव का जुझारू संघर्ष

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पहाड़ बचाने को “जुझार” गाँव का जुझारू संघर्ष
पहाड़ बचाओ
-शिशिर सिंह
 महोबा; आसमान से बरसते पत्थर, उड़ती धूल, बंजर खेत, मटमैला पानी, करहाते लोग, धमाके और खौफजदा आंखे, खबर नरक से नहीं बुन्देलखण्ड से हैं। यह हाल है बरी और जुझार गाँव का। जहाँ नरक जैसी जिन्दगी जी रहे गाँव के लोग अब अब अवैध खनन के चलते खनन माफियों के विरोध में उतर आए हैं। पहाड़ को बचाने के लिए लोग मय पशुओं के घर छोड़कर पहाड़ों पर चले गए हैं। गाँव के दुधमुंहे बच्चे से लेकर शतायु बुजुर्ग सब आंदोलन का हिस्सा हैं। अहिंसक आंदोलन कर रहे ग्रामीणों की माँग है कि जुझार पहाड़ के खनन को तुरंत रोका जाए। 700 एकड़ में फैला यह पहाड़ बड़ा पहाड़ के नाम से भी जाना जाता है। ग्रामीणों के विद्रोह तेवर देख प्रशासन के भी हाथ-पाँव फूले हुए हैं। मीडिया में खबर आने के बाद एसडीएम सदर विन्ध्यवासिनी राय, सीओ अखिलेश्वर पांडेय व माइन्स सर्वेयर आरएन यादव ने गाँव का दौरा किया और ग्रामीणों की परेशानी जानने की कोशिश की। उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व श्रम मंत्री बादशाह सिंह भी गाँव वालों के समर्थन में धरने पर बैठे।
….जैसे नरक में रह रहे हों
जुझार पहाड़ ग्रामीणों की धार्मिक मान्यताओं से भी जुड़ा है, पहाड़ पर लाला हरदौल और महेश्वरी देवी का मन्दिर है। सबसे अनोखी बात यह है कि पहाड़ पर एक कुँआ है। पहाड़ पर पानी होना विलक्षण माना जाता है। लोगों के अनुसार यह कुँआ 850 वर्ष पुराना है और अब भी दुरूस्त है। लेकिन खनन माफियाओं की मनमानी और कारगुजारियों के चलते प्रकृति के गोद में बसा बरी और जुझार गाँव नरक बन गया है। लोग गंभीर बीमारियों का शिकार हैं। लगातार और तेज धमाकों से यहाँ कोई भी निर्माण करना संभव नहीं है। गाँव के सारे भवनों में धमक के चलते दरारें आ गई हैं। कोहरे की तरह धूल गाँव में छाई रहती है। घरों पर डस्ट की तीन से चार इंच मोटी धूल की परत हमेशा जमा रहती है। खेत पत्थरों से अटे पड़े हैं। घर के अन्दर हों या बाहर लोगों को हर समय हादसों का खौफ रहता है। यह बेजा नहीं है क्योंकि धमाके इतने तेज होते हैं कि 40-50 किलो तक के वजनी पत्थर एक किलोमीटर के दायरे तक उछल कर चले जाते हैं। ठेकेदारों ने मन्दिरों को भी नहीं बख्शा है, पहाड़ पर स्थित लाला हरदौल के मन्दिर को विस्फोट से जीर्ण-शीर्ण कर दिया है।
गंभीर बीमारियों का शिकार ग्रामीण
खनन से प्रदूषित हुई आबोहवा ने गाँववासियों को बीमार बना दिया है। धन के अभाव में यह बीमारियाँ जानलेवा सिद्ध हो रही हैं। बहुत अधिक धूल में रहने के कारण गाँव के लोग सिल्कोसिस बीमारी का शिकार हो रहे हैं। सिल्कोसिस फेफड़ो से जुड़ी एक बीमारी है जो लंबे समय तक धूल और प्रदूषण में रहने के कारण होती है। इसमें व्यक्ति के फेफड़ो में आवांछित और हानिकारक पदार्थ जमा हो जाते हैं, जिससे सांस लेने की क्षमता, लगातार घटती जाती है। गरीब ग्रामीणों के लिए इस बीमारी का इलाज करा पाना संभव नहीं है। वैसे सूचना तो यह भी है कि इसके चलते गांव में कुछ मौतें भी हुई हैं। यही नही पिछले कुछ समय से गाँव में मंदबुद्धि बच्चों की संख्या लगातार बढ़ी है, ग्रामीण इसके पीछे भी खनन से प्रदूषित हुए वातावरण को दोषी ठहराते हैं। लगातार धूल के संपर्क में रहने से रहवासियों की चमड़ी काली पड़ती जा रही है। इसके अलावा कान और पेट की बीमारियों से भी ग्रामीण परेशान हैं।
न कोई सुरक्षा न कोई नियम
सैयां भए कोतवाल तो डर काहे का, कुछ यही हाल है यहाँ के खनन माफिया का। जानकारी के लिए बता दें कि खनन माफिया खुद को बसपा नेता का रिश्तेदार बताता है।  क्षेत्र में एक भी क्रशर ऐसा नहीं है जो नियमों के अनुरूप चल रहा हो। नियमानुसार दिन में केवल दो घंटे दोपहर बारह बजे से दो बजे तक ही विस्फोट की अनुमति है। लेकिन माफिया अपनी मर्जी और सहूलियत के हिसाब से विस्फोट करते हैं। यहाँ तक कि रात को भी विस्फोट होना आम बात है। एक अन्य नियमानुसार दो इंच छेद करके विस्फोट का प्रावधान है लेकिन छह इंच के छेद करके विस्फोट किए जा रहे हैं। विस्फोटक के रूप में अमोनियम नाइट्रेट के ज्यादा इस्तेमाल के चलते खुफिया एजेंसियाँ सक्रिय हो गई है। मीडिया में खबर आने के बाद एलआईयू की टीम ने गाँव में दौरा किया है। गौरतलब है कि पिछले कुछ धमाकों में आतंकवादियों द्वारा विस्फोटक के रूप में अमोनियम नाइट्रेट का प्रयोग किया गया है। खुफिया एजेंसी को शक है कि यह देश के अन्दर से ही आतंकवादियों को मुहैया कराया जा रहा है। सरकार भी अमोनियम नाइट्रेट की बिक्री पर नजर रख रही है और इसको सीमित करने के लिए योजना बना रही है।
आर या पार
गांववासी खनन से कितने परेशान हैं इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने सब काम छोड़ आर या पार की लड़ाई का मन बना लिया है। फसल की सिंचाई को भी ग्रामीण नजरअंदाज कर रहे हैं। केवल पुरूष ही नहीं गाँव की महिलायें भी पहाड़ को बचाने की इस मुहिम में आगे आई हैं। गाँव के लोग अब अफसरों के कोरे आश्वासानों के बजाए ठोस कार्रवाई चाहते हैं उनकी माँग कि प्रशासन जल्द से जल्द इन पट्टों को निरस्त करे।
खामोश पर खौफ नहीं
ग्रामीणों के इस विद्रोह के चलते खनन माफिया खामोश तो हैं पर न उन्हें कार्रवाई का खौफ है और न ही पट्टे निरस्त होने की चिंता। खुद को बसपा नेता का रिश्तेदार बताने वाले माफियाओं की पहुंच काफी ऊपर तक है। ऊँची पहुँच के चलते प्रशासन इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करता है। हालात इस कदर बिगड़े हैं कि जब-जब ग्रामीणों ने इसकी शिकायत पुलिस में की उन्हें या तो डाँट कर भगा दिया गया या जेलं डाल दिया गया। प्रशासनिक साँठगाँठ के चलते माफिया निरंकुश हो गए हैं।
समूचा बुन्देलखण्ड है इसका शिकार
ठीक यही पीड़ा बुन्देलखण्ड के अनेक क्षेत्रों की है। धरती पहले से ही बंजर है अब इसको खोखाला करने की जो साजिश दबंगो द्वारा की जा रही है प्रशासन उस पर ध्यान ही नहीं दे रहा है। ललितपुर, झाँसी, चित्रकूट आदि सहित वो सब इलाकों जहाँ खनिज मौजूद हैं वहाँ के लोग उन्हें शाप समझने लगे हैं। वह एक ऐसी नारकीय जिन्दगी जीने को विवश है, जिसके जिम्मेदार वो कहीं से नहीं है। खनन माफियाओं की कारगुजारियों की शिकायत प्रशासन पर लगातार पहुंचती रही है। लेकिन इस तरह का लंबा आंदोलन पहली बार देखने को मिल रहा है जहाँ ग्रामीण पूरे जी-जान से पहाड़ो को बचाने में लग गए हैं। पड़ोस के गाँव पचपहरा के लोगों ने भी यह देख गाँव में होने वाले खनन का विरोध शुरू कर दिया है।

Thursday, November 17, 2011

RTI Repaly.....

HT Meediya News

Bundelkhand State !