Wednesday, February 22, 2012

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कुपोषण नहीं बना चुनावी एजेंडा

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जिंदगी के लिए सूखा और राजनीति के लिए सर्वाधिक उर्वर बुन्देलखण्ड । कुपोषण के मामले में इस क्षेत्र की  तस्वीर प्रधानमंत्री द्वारा जारी कुपोषण के शर्मनाक आंकड़ों से भी विद्रुप है। हर वर्ष करोड़ों रूपये खर्च किये जाने के बावजूद क्षेत्र के आधे से अधिक बच्चे फीसदी बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं...
बुंदेलखंड से आशीष सागर 
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल ही में हंगामा (हंगर एंड मालन्यूट्रिशन) रिपोर्ट जारी करते हुए देश में खाद्य सुरक्षा को लेकर पहली दफा चिंता जताई है और कुपोषण को राष्ट्रीय शर्म माना। हंगामा रिपोर्ट में बताया गया कि देश के 100 जिलों में करीब 42 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं, जबकि 59 प्रतिशत बच्चों का विकास कुपोषण के कारण अवरूद्ध है। फिर भी हंगामा रिपोर्ट कम वजन के बच्चों की संख्या में 20.3 प्रतिशत की कमी बता रही है। 
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कुपोषण को लेकर जारी होने वाले आंकड़ों में सच कितना और सरकारी बाजीगरी कितनी है, उसकी गवाही वह गांव ही दे सकते हैं, जहां से ये आंकड़े सरकारी फाइलों में आकर दबते हैं, एक नया आंकड़ा बनने के लिए। इन रिपोर्टों को लेकर जनता के शायर स्वर्गीय अदम गोंडवी ने कहा था, ‘तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं और यह दावा किताबी है।’’
जिंदगी के लिए सूखा और राजनीति के लिए सर्वाधिक उर्वर माने जाने वाले बुन्देलखण्ड का जिला ललितपुर। कुपोषण के मामले में इस जिले की तस्वीर प्रधानमंत्री द्वारा जारी शर्मनाक आंकड़ों से भी विद्रुप है। हर वर्ष करोड़ों रूपये खर्च किये जाने के बावजूद जिले के करीब  52 फीसदी बच्चे कुपोषण से पीडि़त हैं। ललितपुर के शहरी क्षेत्र से दूर ग्रामीण इलाकों में खुले पेट और पतले हाथ पैर के बच्चों की फौज प्राथमिक पाठशाला, गांव के तंग रास्तों पर आसानी से देखी जा सकती है। ऐसे बच्चों को देख उल्दना खुर्द गांव के शिवबिहारी कहते हैं, ‘हाथ पांव नगंडि़या, पेट टमा टमटम।’ टमाटम पेटों वाले सर्वाधिक बच्चे जिले के सहरिया आदिवासियों के बस्तियों-गावों देखे जा सकते हैं। 
ललितपुर क्षेत्र के गांव धौर्रा, जाखलौन, बंदरगुढ़ा, मादौन, कुर्रट सहित विभिन्न गांवों के सहरिया बस्तियों में कुपोषण उनकी जिन्दगी का अहम हिस्सा बन चुका है। कुपोषण का असर नवजात शिशुओं से लेकर 0-14 वर्ष के नौनिहालों के हाथ पैर पर भी पड़ता है। शरीर के यह अंग अन्य की तुलना में बहुत पतले हो जाते हैं। तंगहाली में जीवन बसर कर रहे ग्रामीण आबादी वाले बच्चों को भरपेट भोजन देना भी मां-बाप के लिए किसी पहाड़ तोड़ने से कमतर नहीं है। 
गांव बंदरगुढ़ा के रामप्रसाद का कहना है, ‘बच्चों को भरपेट भोजन नहीं दे पाने के कारण हमारी पीढि़यां हमारी तरह जर्जर हो रही हैं।’ हालांकि कुपोषण के निपटने के लिए जनपद के विभिन्न ग्रामीण व नगरीय कस्बों में 1100 आंगनबाड़ी सेन्टर्स संचालित हैं, जहां कुपोषित बच्चों को आईसीडीएस (समेकित बाल विकास परियोजना) के तहत पुष्टाहार उपलब्ध करवाया जाता है और उन पर बराबर नजर रखने का भी दावा किया जाता है। 
जनपद के आंगनबाड़ी सेंटरों  में 1-6 वर्ष के 136989 बच्चों   की जब मौके पर जाकर सरकारी अमले ने नापतौल की तो 62895 बच्चों का ही वजन दुरूस्त पाया गया। शेष 74094 बच्चे कुपोषण के दायरे में पाये गये। इन आंकड़ों की पैबन्द में 261 बच्चे गम्भीर रूप से कुपोषित मिले हैं। ग्रामीण राम प्रवेश कहते हैं, कुपोषण को दूर करने के लिये चलायी जा रही योजनाएं भ्रष्टाचार की मांद में इन सहरिया आदिवासियों के बच्चों की तरह कुपोषित हो रही हैं।’ 
यह वही कुपोषित बच्चे हैं, जिनके लिए वल्र्ड बैंक ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत उत्तर प्रदेश सरकार को करोड़ों का अनुदान दिया था, जिसमें से 5000 करोड़ का अबतक घोटाला चुका है। ऐसा नहीं है कि यह दुर्गति सिर्फ ललितपुर की है, बल्कि बुंदेलखंड के बाकी जनपदों के भी कमोबेश यही हालत हैं। 
बांदा जिले के नरैनी क्षेत्र में फतेहगंज, मड़फा क्षेत्र के गोबरी गुड़रामपुर, डढ़वा मानपुर, बोदा नाला गांव में मवेसी और गोड़ जाति के आदिवासी बच्चे गम्भीर रूप से कुपोषण के शिकार हैं। बुंदेलखंड के इन गांवों में मौके पर जाकर देखा तो पता चला कि कुछ आदिवासी परिवारों के उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा से लगे नरैनी क्षेत्र के ग्राम पुकारी में चैंकाने वाले आंकड़े उभर कर सामने आये। 
वहां बच्चे ही नहीं बल्कि अधेड़ उम्र के बुजुर्गों को भी कुपोषण, एनीमिया (रक्त अल्पता) के कारण कम लम्बाई, ठिगना, मत्था धसा हुआ और आंखे अन्दर की ओर पायी गयी। वहीं पीने वाले पानी में अत्यधिक खार और फ्लोराइड की मात्रा से गर्भवती महिलाओं में एनीमिया के कई मामले भी सामने आये।’
बुन्देलखण्ड में ललितपुर, बांदा, चित्रकूट जनपदों में बसने वाली सहरिया, मवेशी, गोड़ और कोल जनजातियां आज भी तेंदू पत्ते तोड़कर, जंगलों से लकडि़यां काटकर आठ घण्टे की हाड़ तोड़ मेहनत के बाद जिन्दगी गुजारने का माद्दा रखती हैं। चुनावी पैतरों से सजे घोषणा पत्रों में छोटे या बड़े किसी भी राजनीतिक दल ने  कुपोषण को अपना चुनावी एजेण्डा नहीं बनाया है। 

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