Saturday, October 11, 2014

अस्सी नदी की अस्मिता पर प्रश्न ?

श्री प्रेम प्रकाश जी पत्रकार  की वाल से - 


अस्सी आज रोएगी बहुत हम उसका बजबजाता हुआ,पपड़ी पड़ा हुआ घाव कुरेद आये हैं. उसका दर्द आज उसे तोड़ेगा.यही वह अस्सी नदी है मित्रों,जो 1950-55 से पहले तक नदी की तरह बहती थी और आज कहीं नाले की तरह,कहीं नाली की तरह,कहीं पाइप लाइन की तरह तो कहीं किसी,कहीं किसी..कई रूप में बहती है,कहीं कहीं तो नही भी बहती है.अस्सी अब कई जगह तो कालोनियों के रूप में भी बर्बाद है.यद्यपि शोध बताते हैं कि इसका जलस्रोत धरती के नीचे अभी भी प्रवाहमान है.केवल नगर के धनश्रेष्ठियों ने ही नही,अब तो वाराणसी विकास प्राधिकरण ने भी नदी के ऊपर आवासीय परिसर बना दिए हैं.जहाँ हम खड़े हैं,केवल इसी जगह इसका इतना चौड़ा पाट बचा भी है.बाकी जगह तो इतना ही बचा है कि हवा भी किसी तरह खुद को तोड़ मरोड़ के बीच से गुजर ले.मुझे नही मालूम कि दूसरे शहरों और गाँवों के जो मित्र हैं,वे अस्सी के महत्व को किस प्रकार समझ रहे हैं.लेकिन मुझे आपको बताना है कि वाराणसी तभी तक वाराणसी है जब तक अस्सी है.अस्सी नही तो वाराणसी भी नही.इसके बाद ऐसा भी नही कि आप काशी से काम चला लेंगे.अस्सी तो काशी में भी है और बनारस में भी है.कुल मिलाकर ये कि अस्सी है और अस्सी के महत्व को आप नकार नही सकते.लेकिन यहाँ तो हालात ही दूसरे है.बनारस वाले महत्व को तो छोडिये ,अपनी एक नदी के अस्तित्व को ही नकारे बड़े मजे से विकास की रेल में सवार है.
मुझे बहुत पीड़ा है.बरसों से यह पीड़ा साल रही है.अस्सी को मैंने हमेशा नाले के रूप में ही देखा है.नदी वो मेरे जन्म से बहुत पहले थी.ये एहसास लगातार आघात पहुंचाता है कि पिछले 5-6 दशकों में हम लोग मिलकर अपनी दो नदियों को खा गये.गंगा को बर्बाद करने में तो फिर भी उत्तर भारत का एक बहुत बड़ा समाज और कई सरकारें शामिल रही हैं.लेकिन वरुणा और अस्सी तो बनारस की अपनी नदियाँ थीं,उसके अस्तित्व से जुड़ी नदियाँ थीं..वरुणा और अस्सी की वर्तमान हालत को आज देखिये तो बनारस के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेहरे का असली प्रतिबिम्ब दिखाई देता है.लोगों ने अस्सी और वरुणा को पाट-पाट कर पर्दे के पीछे से मकान बना लिए,होटल खड़े कर लिए और रही सही कसर सरकार ने पूरी कर दी.नदी की ज़मीन पाटकर कॉलोनियां बनवा दीं.चित्र में हमारे पीछे ये जो थोडा सा स्पेस दिख रहा है,पिछले साल इसमें भी पाइप आदि डाला जा रहा था.लेकिन जन विरोध के कारण यह षड्यंत्र सफल नही हो पाया,वरना मकान आज यहाँ भी बन चुके होते.वरुणा तो फिर भी मेरे देखे भर में नदी थी.उसे तो बीते 25 सालों में ख़त्म किया गया है.इन बेगुनाह नदियों को ख़त्म करने में हमारे समाज और सरकार दोनों ने होड़ लगाकर हिस्सा लिया है.आज दोनों नदियाँ बर्बाद हो चुकी हैं.कैसा दुर्भाग्य है बनारस का कि अपनी दो दो नदियों का हत्यारा समाज खुद को दुनिया की सर्वाधिक प्राचीन आध्यात्मिक नगरी का सर्वाधिक सुसंस्कृत समाज बताता है.आप निरीक्षण कीजिये बनारस का सेन्स ऑफ़ नेचर कैसा है.काशी ये है....काशी वो है....हम तो सबसे ज्यादा पहुंचे हुए लोग हैं हम दुनिया की सबसे पुरानी संस्कृति वाले लोग हैं.हमारा पेटेंट है साहब.भारत विश्वगुरु हमारे ही कारण है क्योंकि आप लोग खाते होंगे दाल,भात,इडली,डोसा..हम लोग तो नदियाँ खाते हैं.
हम इस सत्याग्रह के दौरान इस सड़े हुए पानी में घुटनों तक लगभग आधे घंटे खड़े रहे.पहले तो अरारों से नीचे उतरना ही बहुत मजबूत कलेजे का काम है.56 इंच हमेशा कम पड़ेगा.मोदी जी का काफिला चार दिन बाद इसी पुल से होकर बीएचयू जाएगा.गंध,दुर्गन्ध का नही,सडांध का गहरा भभूका अस्सी के पूरे वातावरण में है.किनारे की जमीन गरीब गुरबा वंचित शोषित जन के मल-मूत्र त्याग से पटी पड़ी है.हम लोग सांस रोके निर्विकार भाव से नीचे उतर आये..यह जो तीन फुट की चौड़ाई में काला पानी बह रहा है,इसमें ऑक्सीजन शून्य प्रतिशत भी नही है.बहता हुआ पानी जैसा दिखने वाला यह प्रवाह केवल मल-जल है.इस जगह,जहाँ हम खड़े हैं,एनेस्थीसिया की कोई जरूरत नही है.बेहोश किये जाने के पूरे इंतजाम हैं यहाँ..हम सीवर के पानी में खड़े हैं,जिसमे खतरनाक रसायनों की भरमार है.आधे घंटे तक ऊपर तेज धूप और नीचे इस सडांध में खड़े रहकर ध्यानाकर्षण सत्याग्रह करने के बाद जब हम नदी से बाहर निकले तो हमारे पैरों में जलन हो रही थी.सामने से प्लास्टिक,गंदगी और सीवर मल बहा आ रहा है,ये शोषक समाज का मल-जल है.ये अमीरों का सीवर है.ये हमारे कल्चर्ड शहर के सुसभ्य,सुसंस्कृत और सबसे ज्यादा बौद्धिक लोगों का मल है.यह विश्व प्रसिद्द संकट मोचन मन्दिर का क्षेत्र है..यहाँ का समाज और यहाँ की सरकार ने अपनी एक छोटी सी,प्यारी सी,अपनी सी नटखट नदी की जमीन छीनकर उसपर अपना विकास कर लिया है.और नदी मरने के बाद सड़ रही है..अस्सी को बचाया जा सकता है.नदी की जमीन की पैमाइश हो.नदी की जमीन छोड़े समाज.गंगा बनारस की माँ है तो वरुणा बहन और अस्सी बनारस की बेटी नदी है.बेटी की जमीन हथियाए बैठा हमारा ये समाज पहले तो बेटी के घर पानी भी नही पीता था.कितना बदल गया समाज.हमारा आग्रह है कि समाज के लोग बेटी की जमीन छोड़ें.नीचे नदी का सोता अभी जाग रहा है.ये प्रधानमन्त्री का चुनाव क्षेत्र है.प्रधानमन्त्री 14 को यहाँ आ रहे हैं.प्रधानमन्त्री को अपनी बेटी का हाहाकार सुनना चाहिए.प्रधानमंत्री को अपनी मरनासन्न नदी के इस पुल पर दो पल रुकना चाहिए.प्रधानमंत्री को अपनी अस्सी पर ध्यान देना चाहिए.
यह सत्याग्रह सांकेतिक था.हम एक मुट्ठी लोगों ने आज नदी में प्रवेश करके बनारस में सुगबुगाहट और हलचल पैदा कर दी है.18 अक्टूबर को पूरे बनारस का आह्वान किया गया है.जुटो बनारस.अपनी नदी को,अपनी असलियत को देखो बनारस.18 को अस्सी पर कुम्भ लगेगा.कौन कौन आएगा..!

Wednesday, October 08, 2014

एक बरगद भूल गया अपना मुख्य तना

प्रिय मित्रो,
नेचर का अदभुत करिश्मा देखिये -
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 25 किलोमीटर दूर बक्क्षी के तालाब के पास माझी गांव में एक 200 वर्ष पुराना (अनुमानित) वटवृक्ष नया इतिहास लिख रहा है, 50 बीघे से अधिक क्षेत्र में फैला ये अक्षयवट अपनी लटों द्वारा 100 से ज्यादा तने बना चुका है और इसकी मुख्य पीढ़ (तना) खोजने से भी नहीं मिलती है। गोमती नदी के किनारे एक रमणीक स्थल को जन्म देने वाले इस वृक्षदेव के दर्शन करने प्रतिदिन सैकड़ों लोग दूर दूर से आते है और अपनी लम्बी उम्र की मन्नत मंगाते है।
वैसे तो देश के सभी प्राचीन और विशालकाय वृक्षों को मैंने देखा है लेकिन इस वृक्ष को देखकर कई अन्य विशेषताओं को जाना, इसकी शाखाएं प्रतिवर्ष 3 से 5 फुट विकसित हो रही है जो तुलनात्मक दृष्टि से अन्य सभी पेड़ों से ज्यादा है। विकसित होने की गति यही रही तो अगले 50 वर्षों में दुनिया का सबसे बड़ा तथा ज्यादा छत्र वाला इकलौता पेड़ होगा ये वटवृक्ष। 40 वर्षों से इसके नीचे साधुकुटीर में रह रही एक दक्षिण क्षेत्र की साध्वी का कहना है कि मेरी कुटिया पेड़ से अलग बनी थी जो अब शाखाओं के बीचोबीच घिर गयी है। लोग यहाँ पेड़ की पूजा करने आते है तथा यहाँ की मिट्टी और बीज के साथ इसका आशीर्वाद लेकर जाते है। अमूमन पुराने पेड़ को बूढ़ा बरगद कहा जाता है लेकिन इस पेड़ को जवान वटवृक्ष की उपाधि से नवाजा जाता है क्योंकि इसका कोई तना या शाखा खुरदरी छाल की नहीं है सभी शाखाये चिकनी और दुधारू है।
मेरा आपसे एक सादर निवेदन है कि मौका मिलने पर आप भी इस अनोखे बरगद के दर्शन करने का पुण्यलाभ प्राप्त करें, वैसे प्रकृति की लीला को समझना तो मुश्किल है परन्तु जानने की कोशिश तो करनी ही चाहिए।



एक बरगद भूल गया अपना मुख्य तना ।
- विजयपाल बघेल,

Sunday, October 05, 2014

बुंदेलखंड में केन की सूरत

केन हमारी तड़प रही है
गरम रेत पर जैसे बिजली
बीच अधर में घन से छूटी
तड़प रही है।
गत 4 अक्तूबर 2014 के नवदुर्गा मूर्ति विसर्जन के बाद बुंदेलखंड के जिला बाँदा में केन की सूरत यूँ रही l हलाकि मूर्ति पंडालो पर मनोसामाजिक दबाव और प्रसाशन की सख्ती की वजह से इस बार केन में गंदगी का अम्बार कम रहा है ,लेकिन जो है वो हमारी आस्था और जल की अस्मिता पर यक्ष प्रश्न खड़ा करता है ? गंदगी सफाई के बाद किनारे पर लगा ये कूड़ा काफी कुछ कहता है l शायद ये हिन्दू आस्था ही तो है जो अपने क्षणिक सुख के लिए सब कुछ कर सकती है ? और हम इस पर भी कुतर्क ही करते नजर आते है l
क्या महज प्रतीको के सम्मान के लिए जिंदगी की हवा - पानी और साँस को पभावित करना लाजमी है ? अगर है तो हम स्वघोषित सभ्य है इंसान तो हरगिज नही है l यहाँ कुल 250 मूर्ति नदी में विसर्जित की गई है l बुन्देलखण्ड में इस वर्ष 19 सूखा है l
https://www.youtube.com/watch?v=wLDZk5UJoQw&feature=youtu.be