Tuesday, February 03, 2015

मरते गांव की चिट्ठी ....

कविता साभार - सौमित्र राय - 
मरते गांव की चिट्ठी 





आज गांव ने मेरे नाम चिट्ठी भेजी है,
अपने बचपन से लेकर बुढ़ापे तक की बात लिखी है,
खेतों से लेकर पहाड़ तक की बात लिखी है।
पढ़ते-पढ़ते मानों मैं भी गांव पहुंच गया,
जिन गलियों ने हमारा बचपन लिखा,
आज वो खामोश हैं,
अब न तो बच्चे इन गलियों में खेलते हैं,
न ही घरों की औरतें वहां इकट्ठी होती हैं,
सब अपने घर तक सीमित रह गए हैं।
गांव के फूलों की खुश्बू। चारदीवारी में कैद है,
खेतों में नहीं दिखते बैलों के जोड़े,
सब मशीनी हो गया है।
पर औरतें अब भी भोर होते ही,
खेतों से मिलने जाते हैं,
नदी अब भी उतने ही जोश से बहती है,
पर मन ही मन डरी रहती है,
कि न जाने उसकी स्वच्छंदता कब खत्म हो जाए,
सामने का पहाड़ बहुत उदास रहने लगा है,
सुना है उसे खोदने की तैयारी पूरी हो चुकी है,
अगर यह पहाड़ और नदी टूट गए,
तो मेरी मृत्यु भी निश्चित है।
इनके होने से मैं अब तक जिंदा हूं,
फिर तो मेरी यह खामोश गालियां,
और लहलहाते खेत भी मर जाएंगे,
उसके साथ मर जाएंगी,
तुम्हारी सारी यादें।
क्या सिर्फ उन यादों को जिंदा रखने के लिए,
तुम वापिस नहीं आ सकते?
मैं स्तब्ध था।
खामोशी ने मुझे घेर लिया।
जिसे शहर के शोर ने तोड़ लिया,
मीटिंग, वर्कशॉप और बच्चों का भविष्य,
इन सब के बीच दब सा गया,
चिट्ठी से उठती हुई आवाजों का शोर।
( तस्वीर - पन्ना टाइगर्स के अन्दर केन - बेतवा नदी गठजोड़ से विस्थापन के आदेश के बाद ग्रामीण बैठक सितम्बर दो हजार चौदह )

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