Tuesday, September 08, 2015

सोन चिरैया के जंगल में ‘सफेद हाथी’


साभार - फेसबुक वाल से ...
कभी भारत सोने की चिड़िया था, जिसे विदेशियों ने उजाड़ दिया। इस देश मे एक सोन चिरैया है, उसे अब देश के लोग लुप्त करने पर आमदा है। सन 2011 की गणना में इसकी संख्या 250 बताई गई थी पक्षी विशेषज्ञो की आश्ंाका है इस समय यह बामुश्किल 150 बची होगी। दुर्लभ पक्षी सोन चिरैया के अस्तित्व की रक्षा के लिए सरकार ने एक संरक्षित अभ्यारण बनाया। उसमें सरकारी कर्मचारियां-अफसरों का लंबा-चैड़ा अमला बहाल किया गया। कुछ साल बाद देखा तो वहां केवल सरकारी सफेद हाथी बचे, सोन चिरैया बीते हुए कल की बात बन गए। जब नौकरी पर संकट आया तो कागजी शेर बनाए गए, लेकिन दुर्भाग्य सोन चिरैया नहीं बचीं। यह तथा-कथा है मध्यप्रदेश के ग्वालियर के घाटीगांव और करैरा(शिवपुरी) की। यह भी विडंबना है कि ‘चिड़िया उड़ने’ के बाद इलाके के गांवों को उजाड़ कर चिड़िया को बसाने का शिगूफा छोड़ा जा रहा है।
‘ओटीडीटी’ कुल का पक्षी सोन चिरैया ग्रेट इंडियन बस्टर्ड या हुकना या तुकदार भी कहलाता है। डीलडौल में गिद्ध के समान, सिर तक ऊंचाई कोई तीन फीट, वजन कोई 13 किलोग्राम - कुछ-कुछ शुतुर्मुग की तरह दिखने वाले इस पक्षी का शरीर बगैर बालों वाली टांगों के समकोण पर टिका होता है।इसे देश का सबसे विशाल पक्षी भी माना गया है। यह इसकी खास विशेषता भी है। इसे ऊपरी पंख गहरे पीले और उन पर काली धारियों होती हैं।निचला भाग सफेद व छाती के पास नीचे लंबी काली पट्टी होती हैं। सफेद गर्दन, कली खोपड़ी, चैड़े पंखों की नोक के पास सफेद-सा धब्बा और सिर पर कलगी- ये कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जिनके कारण सोन चिरैया कुछ अलग ही दिखती है। मध्यप्रदेश में घाटीगांव व करैरा के अलावा राजस्थन के कंडनपुर, सोनखल्या और डेजर्ट नेशनल पार्क, महाराष्ट्र में नानाज, आंध्रप्रदेश में रोल्लापाडू और कनार्टक के रानी बन्नार अभ्यारण में इस दुर्लभ पक्षी की आबादी बामुश्किल 150शेष है। कुछ जगह तो बस नाम के अभ्यारण है वहां पक्षी है ही नहीं।
सोन चिरैया बहुत ही शर्मीला व चैकस परिंदा है, दुर्भाग्य की बात है कि यह पक्षी कभी इंसान की नियत पर संदेह नहीं करता है। यही कारण है कि पिछले कुछ दशकों में इसका इतना शिकार हुआ कि आज यह प्रजाति खतम होने के कगार पर खड़ी है। हालांकि इसका मांस रबर की तरह लचीला और खुरदुरा होता है, इसे आसानी से चबाया नहीं जा सकता है। इसके बावजूद इसकी दीवानगी के पीछे यह भ्रांति है कि इसकी तासीर गरम होती है और इससे पौरुष-शक्ति बढ़ती है। फिर इसे पंख खूबसूरत होने के कारण सजावट के काम आते हैं। वैसे यह पक्षी काफी कुछ अपनी आदतों के कारण मारा जाता है। अक्सर देखा गया है कि सोन चिरैया गाय, भैंस या बकरियों के झुंड के साथ पैदल चलने लगती है। ऐसे में ग्वाले या शिकारी इसको धर पकड़ते हैं। यहां तक कि लोमड़ी और कुत्ते भी इसको पकड़ लेते हैं, क्योंकि यह अचानक उड़ नहीं पाता है। साथ ही यह पक्षी साल में केवल एक बार और केवल एक ही अंडा देता है। अंडे को सहेजने के लिए अपेक्षित संवेदनशीलता का अभाव भी इसके लुप्त होने का बड़ा कारण है।
सन 1982 में मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले के घाटीगांव का 512 वर्गकिमी और शिवपुरी के करैरा में 202 वर्गकिमी इलाके के जंगल को सौन चिरैया के लिए संरक्षित अभ्यारण घोषित किया गया था। इस क्षेत्र की सिफारिश मशहूर पक्षी वैज्ञानिक डा. सालिम अली ने की थी। बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के वेज्ञानिक डा. रफीक रहमानी लगातार इन जंगलों में आते रहे। उन्होंने इस अनूठे परिंदे के प्राकृतिक आवास, प्रजनन, आदतों आदि पर गहन शोध किए। डा. रहमानी ने इस पक्षी का अस्त्त्वि बचाने के लिए कई सुझावों के साथ एक रिपोर्ट मध्यप्रदेश शासन को भ्ेाजी थी। डा. रहमानी की रिपोर्ट सरकारी फाईलों के जंगलों में कहीं खो गई और सरकारी कागजों में जंगल संवारने के नाम पर करोड़ो रूपए खर्च किए गए। बीते पांच सालों में यहां पखी संरक्षण के लिए एक करोड़ 35 लाख रूपए खर्च किए गए। इसके लिए कोई 18 अफसर व कर्मचारी तैनात हैं। चिड़ियों को चुगाने के लिए चने व अन्य दानों की खरीदी और वितरण बाकायदा कागजो पर दर्ज होता है। जबकि अफसर कहते हैं कि केवल आठ सोन चिरैया शेष रह गई हैं। सरकारी रिकार्ड की ही बानगी है कि 1986 में यहां 35, 1987 में 40, 1991 में 12, 1992 में 18 और 1993 में पांच पक्षी देखे गए। उसके बाद कई साल संख्या शून्य रही, लेकिन सरकारी खर्च होता रहा। हालांकि आज भी पक्षी की संख्या तो शून्य ही है, लेकिन अपनी नौकरी और ऊपर की कमाई बचाने के लिए इसकी संख्या आठ बताई जा रही है। यही हालात अन्य कई अभयरणों के भी हैं।
इन जंगलों से सोन चिरैया के लुप्त होने के लिए शिकार के साथ-साथ वहां के प्राकृतिक वृक्षों की संख्या कम होना भी जिम्मेदार है। खेती-योग्य सरकारी जमीन पर नाजायज कब्जा करने की साजिश के तहत चिड़ियों को उजाड़ने की बात कुछ पर्यावरणविद बताते हैं। कतिपय वन अधिकारी और स्थानीय नेता इस साजिश में शािमल बताए जाते हैं। सनद रहे कि इस इलाके के बाशिंदों का जीवकोपार्जन मुख्य रूप से खेती से ही होता है और यहां खेती की जमीन के लिए हत्या व डकैत बनना आम बात है। जब कभी सोन चिरैया लुप्त होने का हल्ला होता है, जंगल महकमे वाले अभ्यारण के तहत आने वाले 32 गांवों को खाली करने की कवायद शुरू कर देते हैं। अपने पुश्तैनी घर-खेत को बचाने के लिए गांव वाले लामबंद होते हैं, सियासत होती है और एक बार फिर सब जस का तस हो जाता है।
यह बात तय है कि इलाके में अब सौन चिरैया को नामोनिशान नहीं बचा है। यह भी बात सत्य है कि प्रकृति की इस अनमोल विरासत को बचाना बेहद जरूरी है । यह भी स्वीकार करना होगा कि चिड़िया को बसाने के लिए हजारों लोगों की बस्ती उजाड़ना एक अव्यावहारिक कदम है। पारिस्थितिकी संतुलन के लिए वन और वन्य प्राणियों का अस्तित्व बेहद जरूरी है, लेकिन सदियों से जंगल और मानव एकदूसरे के पालक रहे हैं। बढ़ती आबादी की जरूरतों के लिए वैकल्पिक व्यवस्था की जाए तो दुर्लभ पक्षी का पर्यावास बचाया जा सकता है। आज सोन चिरैया को सहेजने का कार्य ए-बी-सी-डी से शुरू करने की नौबत आ गई है। चिड़िया के अंडे लाना, उससे बच्चे पैदा करने लायक परिस्थितियां बनाना, बच्चों को बड़ा करना और फिर उनकी संख्या बढ़ाना। लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी होगा, स्थानीय लेागों में इस चिड़िया के संरक्षण के प्रति जागरूकता का भाव विकसित करना।
इसके संरक्षण के लिए बहाल लोगों को इस पक्षी के प्राकृतिक पर्यावास की जानकारी होना भी जरूरी है। यह पक्षी झाड़ी या घास के बीच सूखे मैदानों में रहना पसंद करता है। इसे घने जंगल पसंद नहीं है, लेकिन
घनी फसल वाले खेतों में यह अपना अड्डा जरूर बना लेते हैं। इनका भोजन खेतों- घास में मिलने वाले कीड़े-मकोड़े, टिड्डे, गुबरीले आदि होता है। जाहिर है कि यह पक्षी ऐसी जगह पर रहना पसंद करता है जो इंसान की आबादी के करीब हो। सनद रहे कि जंगल महकमे के लोग इसके संरक्षण के नाम पर गांव-बस्तियां उजाड़ने पर आमदा हैं।
लेखक - पंकज चतुर्वेदी
गाजियाबाद 201005

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