Saturday, August 22, 2015

प्राथमिक स्कूल में बाल मजदूरी करते बच्चे ....बाँदा में !

कटघरे में शिक्षा का अधिकार कानून !





22 अगस्त जारी बाँदा से - उच्च न्यायालय इलाहाबाद के अहम आदेश कि सरकारी स्कूल में पढ़े अफसर,नेता,विधायक और सांसद जी के बच्चे !
इस आदेश के आते ही उत्तर प्रदेश के सरकारी मिशनरी में मचे हडकंप और सरकार के सिस्टम पर हुए झन्नाटे दार वार से देश में सकारात्मक सन्देश गया है. कि क्या कोर्ट के आदेश के विपरीत सुप्रीम कोर्ट न जाकर उत्तर प्रदेश सरकार त्रिपुरा राज्य की तर्ज पर ये पहल करेगी क्योकि वहां तो किसी कोर्ट की आवश्यकता नही पड़ी बुनयादी तालीम को ज़मीन में मुकम्मल करने के लिए. वही बुंदेलखंड जैसे पिछड़े क्षेत्रो में प्राथमिक शिक्षा का क्या बुरा हाल है ये खबरों की आये दिन सुर्खियाँ रहा है...उच्च न्यायालय का फैसला आते ही अगले दिवस उत्तर प्रदेश सरकार ने समाजवाद का कदम उठाते हुए अपने अंदाज में जनहित याचिका दाखिल करने वाले अध्यापक शिव कुमार पाठक को बर्खास्त कर दिया है ! उन पर ये आरोप है कि आपने बिना अवकाश लिए अदालती प्रक्रिया में भाग लिया है ! जबकि होना तो ये चाहिए था कि कोर्ट के आदेश को समाजहित मानकर ये सरकार अपने नेताओ ,आला अफसरान और सरकारी कर्मचारी के बच्चो को भी एक साथ सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढाये जाने का आदेश देती...उसको अगले सत्र से गाँव से गिरांव तक उतारा जायेगा ऐसा मंतव्य अदालत को बतलाती ...मीडिया वार्ता करके मगर नक्कारखाने में ये होगा ऐसा लगता तो नही है क्योकि कोर्ट ने ये आदेश देकर एक बार सरकार को फिर डरा दिया है कि आपकी व्यवस्था में बदबू असहनीय हो गई है अगर नही बदले तो आवाम सड़क पर होगी !...क्या कृष्ण और सुदामा के बच्चे एक साथ पढेंगे ये जानने के लिए इन तस्वीरों को देखे - यह बाँदा जिले के तिंदवारी तहसील का प्राथमिक स्कूल भाग एक है. यहाँ तैनात प्रधानाध्यापक रीता गुप्ता है जिनका नंबर है - 9452512103....ये तस्वीरे गत पंद्रह अगस्त से पूर्व स्कूल में की जा रही तैयारी की है जो स्थानीय एक नागरिक ने मुझे नाम न बतलाने की शर्त पर दी है.क्या जिले का श्रम विभाग और प्रदेश का बाल श्रम विभाग सहित बाल अधिकार आयोग इसके ऊपर कार्यवाही करेंगे ? 
बच्चे स्कूल में अध्ययन की जगह मजदूरी कर रहे है ! अध्यापिका जी अब ये न कहना कि ये बच्चे कही गैर जगह तो नही गए काम करने ! सेवादान या श्रमदान कर रहे है ! क्योकि कुतर्को में सरकारी मामला उलझाना बीएसए को भी आता है और सरकार को भी...उच्च न्यायालय का आदेश तो दूर की बात है पहले आप का सिस्टम वो शिक्षा ही जनता के सामान्य बच्चे को दिला दो जो अमीरों के बच्चो को साधनों की उपलब्धता में हासिल हो जा रही है इलीट स्कूल में देश भर में शिक्षा की दुकानों पर ! - आशीष सागर ,बाँदा से

Friday, August 21, 2015

पहाड़ को चीरता हौसला

' पत्नी की मौत के बाद कातिल पहाड़ को मिटाकर रास्ता बनाने वाला माउन्टटेन मैन ' दशरथ मांझी ' असल में ताजमहल का हीरो है ....पहाड़ को काटना यूँ तो पर्यावरण के प्रति क्रूरता है लेकिन ये तब आपको कर्मवीर बना देती है जब अनजाने में ही सही आप बिना बतलाये वो करे है जो समुदाय को करना था या सरकार को ( 300 फिट ऊँचे पहाड़ को काटकर सड़क बना देना ) यह निश्छल प्रेम का प्रतीक तो है ही साथ में समुदाय और समाज से भी प्रेम करने का जिंदा प्रमाण है ....काश लोग ये सबक दुनिया में नफरत मिटा सकता ! आये पढ़ते है प्यार की मिशाल को.
तस्वीर में - ' दशरथ मांझी ' ....

साभार - http://fursatiya.blogspot.in/2006/07/blog-post_31.html
कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।
वीडियो यहाँ देखे -
https://www.youtube.com/watch?v=xuz7qIjEjmQ
कल ऐसी ही एक शख्सियत बिहार के गया जिले के दशरथ मांझी के बारे में दैनिक हिंदुस्तान में प्रदीप सौरभ का लेख पढ़कर लगा कि इसे यहां पोस्ट किया जाये। सो यह लेख दशरथ माँझी के हौसले को सलाम करते हुये पोस्ट कर रहा हूँ। 

दशरथ मांझी अक्खड़ और फक्कड़ हैं। कबीरपंथी जो ठहरे। कबीर की ही तरह उनका पोथी से कभी वास्ता नहीं पड़ा।प्रेम के ढाई आखर जरूर पढ़े हैं। प्रेम भी ऐसा कि दीवानगी की हद पार कर जाये। इसी दीवानगी में उन्होंने पहाड़ का सीना छलनी कर दिया।
यह कहानी है बिहार के गया जिले के एक अति पिछड़े गांव गहलौर में रहने वाले दशरथ मांझी की। उनकी पत्नी को पानी लाने के लिये रोज गहलौर पहाड़ पार करना पड़ता था। तीन किलोमीटर की यह यात्रा काफी दुखदायी है। एक सुबह उनकी पत्नी पानी के लिये घर से निकलीं। वापसी में उसके सिर पर घड़ा न देखकर मांझी ने पूछा कि घड़ा कहाँ है? पूछने पर बताया कि पहाड़ पार करते समय पैर फिसल गया। चोट तो आई ही,पानी भरा मटका भी गिर कर टूट गया। बस उसी दिन दशरथ ने पहाड़ का मानमर्दन करने का संकल्प कर लिया।
यह बात 1960 की है।
दशरथ अकेले ही पहाड़ कटाकर रास्ता बनाने में लग गये। हाथ में छेनी-हथौड़ी लिये वे बाइस साल पहाड़ काटते रहे। रात-दिन,आंधी पानी की चिंन्ता किये बिना मांझी नामुमकिन को मुमकिन करने में जुटे रहे।
अंतत: पहाड़ को झुकना ही पड़ा। गहलौर पर्वत का मानमर्दन हो गया। अपने गांव से अमेठी तक 27 फुट ऊंचाई में पहाड़ काटकर 365फीट लंबा और 30 फीट चौडा़ रास्ता बना दिया। पहाड़ काटकर रास्ता बनाए जाने से करीब 80 किलोमीटर लंबा रास्ता लगभग ३ किलोमीटर में सिमट गया।
इस अजूबे का बाद दुनिया उन्हें ‘माउन्टेन कटर’ के नाम से पुकारने लगी। सड़क तो बन गई लेकिन इस काम को पूरा होने के पहले उनकी पत्नी का देहांत हो गया। मांझी अपनी पत्नी को इस सड़क पर चलते हुये देख नहीं पाये। अस्सी वर्षीय मांझी तमाम अनकहे दुखों के साथ अपनी विधवा बेटी लौंगा व विकलांग बेटे भगीरथ के साथ रहते हैं।दुख है कि उनको घेरे रहता है,लेकिन वे जूझते रहते हैं। उनका दर्शन है कि आम आदमी को वो सब बुनियादी हक मिलें , जिनका वह हकदार है।
जुनूनी इतने हैं कि सड़क निर्माण के बाद वे गया से पैदल राष्ट्रपति से मिलने दिल्ली पहुंच गये। लेकिन राष्ट्रपति से उनकी भेंट नहीं हो सकी। इस बात का उन्हें आज भी मलाल है। मांझी की जद्दोजहद अभी खत्म नहीं हुई है। वे अपनी बनायी सड़क को पक्का करवाना चाहते हैं।
इसके लिये वे पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव से भी मिले। आश्वासन भी मिला,लेकिन कुछ हुआ नहीं। बीते सप्ताह वे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भी जनता दरबार में मिले। मांझी को देखकर नीतीश कुमार इतना प्रभावित हुये कि उन्होंने मांझी को अपनी ही कुर्सी पर बैठा दिया। आश्वासन और आदेश भी दिये ,सड़क को पक्का कराने के। देखना है कि आगे क्या होगा? करजनी गाँव में सरकार से मिली पांच एकड़ जमीन पर वे एक बड़ा अस्पताल बनवाना चाहते हैं। वे पर्यावरण के प्रति भी काफी सजग हैं। हमेशा वृक्षारोपण और साफ सफाई के कार्यक्रम को प्रोत्साहन देते हैं। गांव और आसपास के लोगों के लिये अब वे दशरथ मांजी नहीं हैं। वे अब दशरथ बाबा हो गये हैं।
[ यहां पर प्रस्तुत है हिंदी दैनिक हिंदुस्तान के संवाददाता विजय कुमार से हुई दशरथ मांझी से बातचीत के अंश ]
पर्वत को काटकर रास्ता बनाने का विचार कैसे आया?
मेरी पत्नी(फगुनी देवी) रोज सुबह गांवसे गहलौर पर्वत पारकर पानी लाने के लिये अमेठी जाती थी। एक दिन वह खाली हाथ उदास मन से घर लौटी। मैंने पूछा तो बताया कि पहाड़ पार करते समय पैर फिसल गया। चोट तो आई ही पानी भरा मटका भी गिर कर टूट गया। बस मैंने उसी समय गहलौर पर्वत को चीर रास्ता बनाने का संकल्प कर लिया।
पहाड़ को काटने की दृढ़ इच्छाशक्ति और ताकत कहाँ से आई?
लोगों ने मुझे सनकी करार दिया। कभी-कभी तो मुझे भी लगता कि मैं यह क्या कर रहा हूँ? क्या इतने बड़े पर्वत को काटकर रास्ता बना पाऊंगा? फिर मेरे मन में विचार आया ,यह पर्वत तो सतयुग,द्वापर और त्रेता युग में भी था।उस समय तो देवता भी यहाँ रहते थे।उन्हें भी इस रास्ते से आने-जाने में कष्ट होता होगा,लेकिन किसी ने तब ध्यान नहीं दिया। तभी तो कलयुग में मेरी पत्नी को कष्ट उठाना पड़ रहा है।मैंने सोचा, जो काम देवताओं को करना था ,क्यों न मैं ही कर दूँ। इसके बाद न जाने कहाँ से शक्ति आ गई मुझमें । न दिन कभी दिन लगा और न रात कभी रात। बस काटता चला गया पहाड़ को।
आपने इतना बडा़ काम किया पर इसका क्या लाभ मिला आपको?
मैंने तो कभी सोचा भी नहीं कि जो काम कर रहा हूं,उसके लिए समाज को मेरा सम्मान करना चाहिये। मेरे जीवन का एकमात्र मकसद है ‘आम आदमी को वे सभी सुविधायें दिलाना ,जिसका वह हकदार है।’पहले की सरकार ने मुझ करजनी गांव में पांच एकड़ जमीन दी,लेकिन उस पर मुझे आज तक कब्जा नहीं मिल पाया। बस यही चाहता हूँ कि आसपास के लोगों को इलाज की बेहतर सुविधा मिल जाये। इसलिये मैंने मुख्यमंत्री से करजनी गांव की जमीन पर बड़ा अस्पताल बनवाने का अनुरोध किया है।
मुख्यमंत्री ने आपको अपनी कुर्सी पर बैठा दिया। कैसा लग रहा है?
मैं तो जनता दरबार में फरियादी बन कर आया था। सरकार से कुछ मांगने ।मेरा इससे बड़ा सम्मान और क्या होगा कि बिहार के मुख्यमंत्री अपनी कुर्सी मुझे सौंप दी। अब आप लोग (मीडियाकर्मी) मुझसे सवाल कर रहे हैं। मेरी तस्वीर ले रहे हैं। मुझे तो बड़ा अच्छा लग रहा है।
दशरथ मांझी ने जो काम किया उसकी कीमत सरकारी अनुसार करीब 20 - 22 लाख होती है। अगर यह काम कोई ठेकेदार
करता तो कुछ महीनों में डायनामाइट वगैरह लगा के कर देता। लेकिन दशरथ मांझी अकेले जुटे रहे तथा बाईस साल में काम खत्म करके ही दम लिया। उनके हौसले को सलाम करते हुये यह लगता है कि ये कैसा समाज है जो एक अकेले आदमी को पहाड़ से जूझते देखता रहता है और उसे पागल ,खब्ती,सिरफिरा कहते हुये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हतोत्साहित करता है। असफल होने पर पागलपन को पुख्‍़ता मानकर ठिठोली करता है तथा सफल हो जाने पर माला पहनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। इसके पीछे दशरथ मांझी के छोटी जाति का होना,नेतृत्व क्षमता का अभाव आदि कारण रहे होंगे लेकिन लोगों की निरपेक्ष भाव से टकटकी लगाकर दूर से तमाशा देखने की प्रवृत्ति सबसे बड़ा कारक है इस उदासीनता का।जीवन के हर क्षेत्र में सामूहिकता की भावना का अभाव हमारे समाज का बहुत निराशा जनक पहलू है। 
ऐसे में दशरथ मांझी जैसे जुनूनी लोगों के लिये मुझे मुझे अपने एक मित्र के मुंह से सुनी पंक्तियां याद आती हैं:-

जो बीच भंवर में इठलाया करते हैं,
बांधा करते हैं, तट, पर नांव नहीं।
संघर्षों के,पीडा़ओं के पथ के राही
सुख का जिनके घर रहा पढ़ाव नहीं।।
जो सुमन,बीहड़ों में, वन में खिलते हैं,
वे माली के मोहताज नहीं होते।
जो दीप उम्र भर जलते हैं ,
वे दीवाली के मोहताज नहीं होते ।।

साभार पोस्ट की गई ब्लॉग में  - @ आशीष सागर दीक्षित,बाँदा से 

Wednesday, August 19, 2015

सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढ़े नौकरशाहों और नेताओ के बच्चे !

                                                          @19 अगस्त सुबह - सबेरे  


'' बुनयादी तालीम का पैरोकार यूपी उच्च न्यायालय ''


' जो राज्य का खजाने से वेतन ले रहे है उन सबके बच्चो को सरकारी प्राथमिक स्कूल में पढ़ाना अनिवार्य करे उत्तर प्रदेश सरकार.जो नियम का पालन न करे उनके वेतन से उतना धन काटे,जितना वह निजी स्कूल में अपने बच्चो की फीस पर दे रहे है.उनका प्रमोशन और इंक्रीमेंट रोके.नीति को कार्यरूप देकर 6 माह में कोर्ट को सूचित करे ' - न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल 
सांसदों,विधयाको,आईएएस,पीसीएस,जज,सरकारी कर्मचारी के बच्चो को भी सरकारी प्राथमिक स्कूल में पढ़ाया जाये यह यह सख्त आदेश उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय ने अपने एक अहम निर्णय में दर्जनों जनहित याचिका की सुनवाई एक साथ करते हुए गत सोमवार को दिया है. हार्दिक अभिनन्दन के साथ इस आदेश को सलाम है. पोस्ट में बुंदेलखंड के जिला बाँदा के एक निजी राममिलन विद्या मंदिर,ग्राम कल्यानपुर सहित फतेहगंज के सरकारी प्राथमिक स्कूल की तस्वीरे उच्च न्यायालय को समर्पित है.
सरकारी प्राथमिक स्कूल के शौचालय कभी प्रयोग नही होते यहाँ,उनमे जमी घास आपको इसका भान करा देगी.डकैत का भय इनके अध्यापको को हराम का वेतन लेने की खुली छूट देता है जबकि असल में अब डकैत से अधिक राहजनी करने वाले यहाँ अधिक है जो इलाकाई युवा बेरोजगार मात्र है.इनमे बांटे जाने वाला मध्यान्ह भोजन कागजो में बनता है या वही के महिला से बनवाकर दे दिया जाता है कुछ मुट्ठी भर बच्चो को जो यदा -कदा आ गए.बाकि सप्ताह में एक दिन तैनात अध्यापक / अध्यापिका आकर अपना रजिस्ट्रर मेंटेन कर जाती है.बीहड़ / ग्रामीण क्षेत्र की ये दुर्गति तब है जब शिक्षा का अधिकार बने कई साल हो रहे है.शहर के प्राथमिक स्कूल या सड़क से लगे स्कूल में प्राइमरी मास्टर साहेब सिटी में डांस क्लब / डांस प्रतियोगिता या एलबम में मस्त रहते है.अध्यापिका बीएसए की मानसिक और आर्थिक सेवा करती है.वही निजी स्कूल की कक्षा में बच्चे और कुत्ता साथ पढ़ते है ये तस्वीर बानगी है जिसको आप इस वीडियो में देखे आँखों से -https://www.youtube.com/watch?v=4q84MtMzi0E
कक्षा तीन का छात्र सत्येन्द्र मुख्यमंत्री का नाम नरेंद्र मोदी बतलाता है और कक्षा 10 से 12 तक की छात्रा अपने स्कूल न जाकर स्कूल समय में यही कोचिंग पढ़कर साल भर की तालीम लेती है.ऐसे सैकड़ो स्कूलो का हाल बुंदेलखंड समेत सब कही है. नेता -व्यापारी,विधायक-सांसद और अफसर की संतान चमकीले स्कूल में पढ़ती है...उसका सामाजिक ताना - बाना इलीट क्लास का है ! बिना एसी की बस में बैठे और महगें चाकलेट या लंच टिफिन के बिना वे स्कूल नही जाते क्या करे नखरा बहुत चढ़ता है दुलार में और ये बच्चे गाँव- गिरांव के एक अदद मिड - डे मील / आंगनबाड़ी की पंजीरी - तहरी के लिए ही आस लगाये प्राथमिक स्कूल जाते है मगर ये सरकारी नौकरी पाकर भारतीय व्यवस्था में रम चुके प्राथमिक - जूनियर अध्यापक अपने मूल कर्तव्यो से इतर उनका भोजन तक बेच लेते है....खबरे गवाह है बुंदेलखंड ( बाँदा ,महोबा ,चित्रकूट ,हमीरपुर ,ललितपुर ,सोनभद्र - मिर्जापुर आदि ) से लेकर उत्तर प्रदेश की बदहाल शिक्षा कैसे म्रत्यु शैया में बैठी है ! सरकारी शिक्षा तंत्र के लिए आज हाई  कोर्ट को मजबूर होना पड़ा ये कहने के लिए कि सरकारी खजाने से वेतन लेने वाले भी अपने बच्चो को यहाँ ही भेजे !...हैरान न हो अगर प्रदेश सरकार या ये अधिकारी सुप्रीम कोर्ट जाते है क्योकि ये आदेश काले अंग्रेजो की गुलामी सहने और निरंकुशता पर तमाचा है....मगर ये सबक भी है उनके किरदार पर जो लबादा उन्होंने अपने कार्य के प्रति ...बच्चो को अँधेरे में ले जाने के लिए चढ़ा रखा है....