Monday, January 11, 2016

अस्तित्व के लिए जूझती छोटी नदियाँ !

साभार - Vivek Tripathi की यह स्टोरी अबकी लाइव इंडिया पत्रिका में प्रकाशित है,
विवेक दैनिक हिंदुस्तान लखनऊ से है.....!

          
सतत प्रवाह नदी का धर्म है, उसकी पहचान है. लेकिन व्यक्ति का उपभोगवादी चिन्तन इसमें बाधक बन गया है. सरकारें नदियों को बचाने का डंका भले ही पीट रही हों पर बड़ी नदियों की अपेक्षा छोटी नदियों को जीवित करने पर उनका ध्यान नहीं है. मध्यप्रदेश के कटनी से निकलने वाली केन नदी की दुर्दशा को देखें तो वह लचार नजर आ रही है। 427 किमी. लम्बाई वाली नदी अपने निर्मल जल के लिए जानी जाती लेकिन आज उसमें नाव चलाने के लिए भी जल नहीं बचा है। खनन मफियाओं ने तो पहले से इसकी दुर्दशा कर रखी है. बची-खुची जान सूखे की मार ने निकाल दी है। हलात ऐसे हो गये हैं वहां घुटनों के नीचे भी नहीं है। इस तरह से तो नदियों का जीवन खतरे में पड़ता दिख रहा है. जो 20 लाख की आबादी को लभान्वित करती थी उसके बारे में शायद कोई नहीं सोंच रहा है. 




सामाजिक कार्यकर्ता आशीष सागर ने नदियों के क्षेत्र में बहुत काम किया है.लेकिन इनके अनुभव भी अच्छे नहीं हैं. इनका काम मध्य प्रदेश की नदियों पर भी है. मध्यप्रदेश के जबलपुर, कटनी जिले के रीठी तहसील से दो किलोमीटर दूर एक खेत से केन नदी निकली है. जहां आज भी कई ऐसे प्रमाण हैं जिन्हें देखकर लगता है कि मुगल काल से पहले हिन्दू चंदेल शासकों ने इसे उद्गम स्थल के रूप में मान्यता दी थी. लेकिन अफसोस कि आज इसे स्वतंत्र भारत के अगुवाओं ने भुला दिया है.
यमुना की एक उपनदी या सहायक नदी के रूप में मान्यता वाली यह नदी बुन्देलखंड क्षेत्र से गुजरती है. दरअसल मंदाकिनी तथा केन नदियां, यमुना की अंतिम उपनदियाँ हैं. इनके बाद यमुना नदी, गंगा में विलीन हो जाती है. रीठी के पास केन के उद्गम स्थल को नदियों की सीमाओं की खोज करने वाली यूएसए की आन लाइन लाइब्रेरी एस्कार्ट ने अपने रिकार्ड में भी इसे समावेशित किया है. किन्तु भारत में इस नदी के विषय में सिर्फ इतना ही कहा जाता है कि यह दमोह-जबलपुर अथवा कैमूर पर्वत श्रृंखलाओं से निकली है.

केन को अपने रौद्र रूप में अगर देखना है तो पन्ना टाइगर्स वाया छतरपुर-सागर मार्ग में केन-बेतवा लिंक में प्रस्तावित गंगऊ डैम के पास देखें. यह पहाड़ी नदी अपने शबाब दिखती है. पिछले दो साल के सूखे ने इसकी 6 सहायक बरसाती नदियों को भी सुखा दिया है. बाँदा बुंदेलखंड की बाणगंगा, बाघे, कडैली, रंज और महोबा की धसान, उर्मिल शामिल हैं. इसी कारण से इसका प्रभाव केन में भी देखने को मिल रहा है.
बावजूद इसके इसकी धारा को तोड़ दिया गया. खनन माफियाओं ने इसे नष्ट कर इसके अस्तित्व को खोखला कर दिया है. हालांकि अभी यह दौर जारी है। एमपी सीमा की तरफ नदी सूख रही है. चिल्ला के पास तो इस नदी का अस्तित्व ही समाप्त हो गया है.
इतना ही नहीं यहां पर माइनिंग वाले रास्ता को रोककर नदी के मार्ग को अवरुद्ध करते हैं. इस सूखे से निपटने के लिए सरकार ने अभी कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया है.
हालात ऐसे हैं कि केन में पाया जाने वाला शजर पत्थर आज विलुप्ति की ओर है. यह पत्थर पूरे विश्व में अपनी कला के लिए जाना जाता है. इसमें प्रकृति के सुन्दर चित्र पेड़, पहाड़, पक्षी या मानव की छाया नैसर्गिक कलाकारी से बनती है.बाँदा से शजर मक्का-मदीना तक जाता है पर उन्हें ये जानकारी नहीं होती कि ये कहाँ से आया है. हज यात्री शजर में कुरान की पाक आयतें लिखवाकर लाते हैं. कभी ये पत्थर अफगानिस्तान तक यहाँ से जाता था. आज खुला बाजार न होने से बाँदा की 34 लघु फर्म बंदी की ओर हैं. इसका उपयोग मात्र चार में काम होता है. इसको तराशने का कमोवेश जितना ही केन नदी का उद्गम स्थल अजीबो-गरीब है, उतनी ही इसके उद्गम की कहानी भी आश्चर्यजनक है.
उप्र में फतेहपुर जनपद के द्वाबा क्षेत्र अपने आप में चर्चित ससुर खदेरी नदी मानव समाज के अतिक्रमण का शिकार है. नदी के प्रवाह को रोककर उसके किनारे खेती हो रही है. नदी का स्वरूप कम हो गया है.
इस नदी का उद्गम स्थल जनपद के विकास खंड तेलियानी के ठिठौरा के पास माना जाता है. यह लगभग 42 गांवों की सीमाओं को स्पर्श करती हुई गुजरती है. धाता विकास खण्ड के सैदपुर ग्राम के पास यमुना नदी में मिलती है. यह लगभग एक लाख 32 हजार 903 की जसंख्या को सीधे लाभ पहुंचाती है. आबादी के जुड़े हुए सीमाओं को भी लाभ पहुंचाती है. कालांतर में इस नदी से हजारों हेक्टेअर कृषि सिंचित होती थी. जलचरों का निवास हुआ करता था. जंगली जानवर व पशु इससे अपनी प्यास बुझाते थे. इसके जीवनोपयोगी जल आपूर्ति का एक मात्र साधन हुआ करता था। किन्तु अब यह स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है.
स्थानीय लोगों में इस बात की चर्चा रहती है कि यह नदी कभी स्थानीय कृषि और किसानों सहित भूगर्भ और पर्यावरण के लिए जीवनदायिनी थी. लेकिन अब मृतप्राय है. हलांकि इसे पुनर्जीवित करने का प्रयास जारी हो चुका है.
इसे पुनर्जीवित करने का काम जिलाधिकारी कंचन वर्मा ने शुरू कराया. बरसात शुरू होने से पहले 5000 मजदूर लगवाकर वृक्षारोपण कराया. लोगों की भी मदद ली गई थी.
तार्किक रुप से विलुप्त मानी जा रही सरस्वती नदी जीवित होने पर 125 गांवों की लगभग 10 लाख जनसंख्या को सीधे लाभ मिलने वाला है. इसके अलावा लगभग 200 ग्रामों एवं लाखों की आबादी को भी लाभ मिलेगा. यह लाभ ऐसे 125 गांवों के लोगों को मिलेगा जो तटीय सीमाओं से जुड़े हैं.
सरस्वती नदी का उद्गम अखनई झील है. यह सबसे बड़ी झील है. इसकी लम्बाई लगभग 6 किमी. है. एक किलोमीटर चैड़ी भी. धान गेंहू, ज्वार, मक्का, अरहर जैसे फसलों की सिंचाई में सहयोगी हुआ करती थी. इस झील में एक विशेष औषधि लालरण और रुद्रवन्ती पाई जाती है. यह हर तरह से लोक कल्याणकारी जल देने वाली नदी है.
पाण्डु नदी कन्नौज के पास से झाझर झील से निकली है. कानपुर देहात, बिल्हौर, शिवराजपुर और फतेहपुर जिले के पश्चिम दिशा में देवमई ब्लाक के परसदेपुर गांव के पास प्रवेश करती है. बरसात के दिनों में इस नदी की तेज व गहरी धारा देखकर लोग कांप उठते हैं। नदी छिवली, कौडि़या, गलाथा, अभयपुर, बड़ाखेड़ा, जाडे का पुरवा, औसेरीखेड़ा, शिवराजपुर, भाऊपुर होते हुए गुनीर के पास गंगा नदी में मिल जाती है.
वर्तमान में इस नदी को पुनर्जीवित करने का काम कर रहे शिवबोधन मिश्र के अनुभव के मुताबिक पानी के नाम पर कानपुर की फैक्ट्रियों का गंदा पानी इस नदी में ही आ रहा है. पानी बहुत विषैला हो गया है. कानपुर, के सारे गंदे नाले गिर रहे है, अतिक्रमण भी हो रहा है. पानी बहुत ज्यादा गंदा होने से जलीय जीव समाप्त हो चुके हैं। पूरी नदी का पानी काला हो चुका है. हालात ऐसे हैं कि अब इसके किनारे इंसान तो क्या जानवर भी नहीं जाते। शायद जानवरों में इस बात का आभास है कि इस नदी का जल पीने अपने प्राण गंवाने के समान है. ऐसी हालत उत्पन्न होने के बाद भी सरकारें चेत नहीं रहीं हैं और न ही समाज के अगुवा ही इस ओर ध्यान दे रहे हैं.
इसे पुनः जीवित करने के लिए वृक्षारोपण जरूरी है. ग्रामीणों के सहयोग से इसे साकार करने की कोशिशें तेज हैं. इस गहरा करने की कवायद भी हो रही है. जलस्रोत ढूंढ़े जा रहे हैं. ग्रामीण चेकड्रोम बना रहे हैं. हालांकि अभी यह कवायद बहुत ही धीमी गति से हो रहा है...!

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