Sunday, August 07, 2016

हिन्दुस्तान में गौरक्षा नहीं तो आजादी का मायने भी नहीं : विनोवा भावे

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देश में कथित गौरक्षा के नाम पर आये दिन होने वाले तमाशे के बीच उलझी किसान की बुनयाद उसका हल और बैल की जन्मदात्री गाय पर ये लेख काबिलेगौर है !

साभार - रिपोर्ट फार इंडिया न्यूज़ पोर्टल से  -

प्रधानमंत्री ने काफी कठोर शब्दों का प्रयोग किया है गौरक्षकों को संदर्भ में। उन्होंने बिना किसी गुंजाइश के सभी गौरक्षकों को लपेट दिया, उन्हें भी जिन्होंने गायों को बचाने के लिए अपनी जानें दी हैं। लेकिन आजाद हिन्दुस्तान में गौरक्षा की बात बड़े-बड़े महात्माओं, संतों, समाजसेवियों, राजनेताओं ने की है, आगे बढ़कर समर्थन किया है। आजादी के सबसे बड़े संत भूदान आंदोलन के प्रणेता संत विनोवा भावे ने गौरक्षा को भारतीय सभ्यता की मांग बताई हैं- उनके शब्दों में आगे पढ़े…

आज़ादी के बाद सबसे बड़े संत विनोवा भावे ने कहा था कि, मैं मानता हूँ कि भारत की सभ्यता की यह मांग है कि हिंदुस्तान में गौरक्षा होनी ही चाहिए। अगर हम हिंदुस्तान में गौरक्षा नहीं कर सके, तो आजादी के कोई मानी ही नहीं होते। यह बात मैंने योजना आयोग के सामने भी स्पष्ट शब्दों में कही थी। परन्तु आज हम जिस हालत में हैं और हरेक राज्य की सरकार जब इस विषय पर सोच रही है, उस हालत में उपवास आरम्भ करना मैंने अच्छा नहीं माना। हिंदुस्तान में आज कई तरह के असंतोष हैं, यह मैं जानता हूँ। परन्तु सबका इलाज एक ही है। जनमत तैयार करना चाहिए और सबसे काम लेना चाहिये।
आज देश के सामने कई समस्याएं हैं। एक साथ सभी समस्या पर नहीं सोचा जा सकता। इसलिए एक-एक समस्या पर ही हम सोच सकेंगे। परन्तु मैंने कहा है कि हिंदुस्तान में गौरक्षा होनी चाहिए। अगर गौरक्षा नहीं होती, तो कहना होगा कि हमने अपनी आजादी खोयी और उसकी सुगंध गंवायी।
गोवर्धन गौशाला और विनोवा भावे  (इनसेट में)।
कुछ लोगों का आजकल एक गलत ख्याल हो गया है। हिंदुस्तान में आज सेक्यूलर स्टेट की बात चली है। वह अच्छी बात है, गलत नहीं। हमारी सभ्यता में ही बात है कि जो राज्य चलेगा, वह सब धर्मों की समान रक्षा करेगा। अशोक के जमाने में भी खुद अशोक बौद्ध था, परन्तु प्रजा तीन धर्मों में (हिंदु, बौद्ध और जैन) बंटी हुई थी लेकिन तीनों की समान इज्जत होती थी और तीनों की समान रक्षा होती थी। इसलिए हम अशोक का इतना आदर करते हैं और हमने उसी का चिह्न अपने राज्य के लिए लिया है। सेक्यूलर स्टेट तो अच्छा ही है। उसका गौरक्षा के साथ कोई विरोध नहीं। अगर ऐसा होता कि आज हिंदुस्तान में जितने धर्म हैं उनमें से एक धर्म कहता है कि गाय को मारना पाप है और दूसरा धर्म कहता है कि गाय का कत्ल करना पुण्य है, तो सरकार कहती कि ‘इस तरह दो धर्मों में विरोध है, तो दोनों को अपने-अपने मत के अनुसार चलने की इजाजत होनी चाहिए, इसलिये सरकार इस बारे में कुछ नहीं कर सकती।’ परन्तु आज ऐसी बात नहीं है। मैंने कुरान और बाइबिल का गहराई और अत्यंत प्रेम के साथ अध्ययन किया है। और जिस तरह मैंने वेदों का चिन्तन किया है, उसी तरह कुरान और बाइबिल का भी किया है। इसलिए मैं मुसलमान और ईसाइयों की ओर से उनका प्रतिनिधि बनकर कहता हूँ कि उन दोनों धर्मों में ऐसी कोई बात नहीं है कि गाय का बलिदान हो। उन धर्मों में बलिदान की बात तो है। वैसे हिंदु-धर्मों में भी है। परन्तु गाय का ही बलिदान होना चाहिए, ऐसी कोई बात उन धर्मों में नहीं है। और इस्लाम की तो यह आज्ञा है कि अपने पड़ोसी की भावनाओं का खयाल रखा जाय। इसलिए मैं कहता हूँ कि हमारे सेक्यूलर स्टेट में गौरक्षा होनी चाहिए।

तत्कालीन पंजाब और अब हरियाणा के सिरसा में भूदान को लेकर अलख जगाते संत विनोवा भावे।
परन्तु आजकल कुछ लोगों को हिंदु कहलाने में भी झिझक मालूम होती है। यह बात गलत है। मैं तो कहता हूँ कि हरेक हिंदू अच्छा हिंदू बने, हरेक मुसलमान अच्छा मुसलमान बने और हरेक ईसाई अच्छा ईसाई बने। और यहां पर सब धर्मों का एक शुभ संगीत चले। एक दूसरे की उपासना से एक दूसरे को पुष्टि मिले। और सब मिलकर भगवान का गुणगान करें। भगवान के अनन्त नाम और अनन्त गुण हैं। जब एक मामूली शहर में पहुंचने के लिए कई रास्ते होते हैं, तो भगवान के पास पहुंचने के भी असंख्य रास्ते हो सकते हैं। इसलिए हर कोई अपने-अपने मार्ग से भगवान के पास पहुंचने की कोशिश करें। जिससे हिंदू न सिर्फ अच्छे हिंदू बनेंगे बल्कि अच्छे मानव भी बनेंगे। मुसलमान न सिर्फ अच्छे मुसलमान बनेंगे बल्कि अच्छे मानव भी बनेंगे, ईसाई न सिर्फ अच्छे ईसाई बनेंगे, बल्कि अच्छे मानव भी बनेंगे। इसलिए सब अपने-अपने धर्मों की एकाग्रता और निष्ठा से उपासना करें, यही मैं चाहता हूं। इससे हमारे देश में एक मधुर स्नेहमय जीवन बनेगा। इसलिए हिंदुओं को हिंदू कहलाने में लज्जा नहीं मालूम होनी चाहिये बल्कि उनको निष्ठा से हिंदू-धर्म की उपासना करनी चाहिये।
मैं जानता हूँ कि सेंट्रल गवर्नमेंट की गौरक्षा के प्रति सहानुभूति है। परन्तु वह कहती है कि यह स्टेट गवर्नमेंट का काम है। मैं जिस प्रान्त में रहता हूँ, उस मध्य प्रदेश में गौरक्षा कानून बना है। वह कानून कैसा बना है वह मैंने नहीं देखा। यहां बिहार में भी एक कानून बनने जा रहा है। मैंने उस बिल को देखा है। उससे मेरा समाधान नहीं हुआ है। उसमें गाय और गाय के बछड़ों की रक्षा की ही बात है। यह देखकर मुझे आश्चर्य हुआ की इस तरह गाय और बैल में फर्क क्यों किया जा रहा है। परन्तु मैंने सुना है कि हमारे संविधान में गौरक्षा की जो कलम है, उसके मुताबिक गाय और गाय के बछड़ों की रक्षा ही जिम्मेदारी मानी गयी है। बैल की जिम्मेदारी नहीं मानी गयी है।
संविधान के बारे में कुछ कहने का मैं अधिकारी नहीं हूँ। उसके जो माहिर हैं, वे वकील लोग ही उसके बारे में कहेंगे। परन्तु मैं कहना चाहता हूँ कि संविधान का यह अर्थ मैं नहीं मानता हूँ। आपने केवल आर्थिक खयाल से गाय की जिम्मेवारी उठायी है या इस ख्याल से उठायी है कि वह भारतीय सभ्यता की एक मांग है। अगर केवल आर्थिक खयाल हो, तो गाय की जिम्मेवारी मत उठाओ, क्योंकि अर्थशास्त्र की दृष्टि से लूली-लंगड़ी और कमजोर गायों की रक्षा करना गलत माना गया है। अर्थशास्त्र एकाक्ष है। वह कहता है कि कमजोर गाय बैलों को मारो, तो उत्तम गाय-बैलों की रक्षा होगी। अगर ऐसी बात है तो फिर आप कमजोर गायों की रक्षा कि जिम्मेदारी क्यों उठाते हैं? इसलिए न कि वह भारतीय सभ्यता की मांग है? अगर ऐसा समझते हों तो बैलों की रक्षा की भी जिम्मेवारी उठाओ।
गाय और बैल दोनों मिलकर गौ कहा जाता है। दोनों में फर्क नहीं है। वेदों में गाय के लिए ‘अघ्न्या’ और बैल को ‘अघ्न्य’ कहा गया है। इस शब्द का मतलब है कि जिसको मारना नहीं। इस तरह यहां की सभ्यताएं गाय और बैल दोनों की रक्षा की जिम्मेवारी उठायी है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि संसद में हमारे जो भाई हैं, वे उस बिल में संशोधन करें और बैल की भी जिम्मेवारी उठायें। अगर यहां की सभ्यता का ख्याल करते हो, तो यह करना होगा। और केवल अर्थशास्त्र की दृष्टि से सोचते हो, तो कमजोर गायों की जिम्मेवारी भी मत उठाओ। साफ कहो की हम गरीब हैं, हम कमजोर गाय-बैलों की जिम्मेवारी नहीं उठा सकते। परन्तु कुछ संस्कृति का ख्याल करते हो, तो फिर केवल गाय की जिम्मेवारी क्यों उठायी? गाय और बैल दोनों की जिम्मेवारी उठाना, यह एक हिंदुस्तान का समाजवाद है।
पाश्चात्य देशों के समाजवाद से हमारे लोग एक कदम आगे बढ़े हैं। उनका समाजवाद मानता है कि हर एक मनुष्य की रक्षा होनी चाहिए। लेकिन भारतीय समाजवाद में मानवों ने गाय को भी अपने परिवार में दाखिल किया है। हां, उसके अनुसार हम बर्ताव नहीं करते। फिर गौ का आदर करते हैं। परन्तु उसकी सेवा का जैसा काम परदेश में चलता है, वैसा यहां नहीं चलता फिर भी हमारे मन में उसके लिए आदर है। और जिस तरह हम अपने घर के बूढ़े लोगों की रक्षा करते हैं उसी तरह गाय-बैलों को भी हमने अपने परिवार में दाखिल कर लिया है। उन दोनों का हम पूरा उपयोग लेंगे, दूध लेंगे, उनके गोबर का उपयोग करेंगे, मरने पर उनके चमड़े का उपयोग करेंगे, परन्तु उन्हें सहज मृत्यु मरने देंगे। यह बात यहां के समाजवाद ने मानी है। लेकिन उसके साथ हमें वैज्ञानिक बुद्धि भी रखनी चाहिये। सिर्फ गाय की पूजा करने से काम नहीं होगा। गोसदन खोलना चाहिए, कमजोर गायों कि रक्षा के लिए व्यापारियों और श्रीमान लोगों को मदद करनी चाहिए।
मैंने जो भूदान का काम उठाया है, उसमें गौरक्षा भी अन्तहित है। परन्तु मेरी यह वृत्ति है कि ‘एक ही साधे सब सधे।’ यह काम ऐसा है कि इससे सारे समाज का परिवर्तन होगा, तो उसमें गाय की भी रक्षा हो जायगी। दूसरे देश के लोग हमें पूछ सकते हैं कि आप सिर्फ गायों की ही रक्षा क्यों करते हैं दूसरे जानवर की क्यों नहीं करते इस पर मैं कहना चाहता हूँ कि हमने परमेश्वर की जिम्मेवारी नहीं उठायी है। हमने अपनी मर्यादा मान ली है। हम गाय-बैलों का उपयोग करते हैं, इसलिए उनकी रक्षा की जिम्मेवारी हमने मान ली है। आजकल जो ट्रैक्टर की बात चलती है, उसे मैं पसंद नहीं करता। उससे गौरक्षा नहीं हो सकती। पड़ती जमीन तोड़ने के लिए ट्रैक्टर का उपयोग हो सकता है परन्तु सामान्य खेती के काम में उसका उपयोग करना यानी गौ-हत्या ही करना होगा।

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